पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१८

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शुक्ल जी योले, "अरे भाई, मुझे तो अभी-अभी प्रसाद जी ने दी है।" गौड़ जी बोले, "उस दिन तो आपके बैठके मे एक प्रति देखी थी ?" मुच्छन जो अपने आपको शुक्ल जी का मानस-पुत्र कहा करते थे, और उसी अधिकार से शुक्ल जी की बात का पोष्ण करने के लिए गलबलाते हुए बोले, "वह तो हम सम्पूर्णानन्द जी के यहा से लाकर रखे थे।" उनकी व्याकरणहीन भाषा पर शुक्ल जी थोडा चौके, परन्तु फिर उन्होंने चुपचाप लहर की प्रति को गोद मे रख लिया और भोजन की प्रशंसा करने लगे। शुक्लजी का उस समय का 'मूड' कुछ ऐसा था, मानो उन्हे अभी लहर के विषय मे बहुत कुछ कहना हो । और ऐसा कुछ कहना है जिससे उग्र, त्रिपाठी, विनोद और 'कुसुम' जैसे गदाई लेखको पर रोब डाला जा सके । 'प्रसाद' जी, जिज्जा जी और गौड जी तो उनके बस के बाहर थे। शायद इसीलिए शुक्ल जी हठात् मौन रहे और खाते रहे। भोजन से निवृत्त होकर फिर बातचीत के लिए बैठते बैठते तीन बज गये। पान जरदा छक लेने पर शुक्ल जी ने अवसर के अनुकूल संस्कृत मे कोई स्वस्तिवाचन किया और फिर लहर की प्रति खोलकर पढने लगे। फिर शीघ्र ही एक पृष्ठ पर रुके और विनोद से बोले, इतने दीर्घकाल से गुरु के चरणामृत का सेवन कर रहे हो । सुनो मै कुछ पक्तिया पढता हूँ कितने दिन जीवन जलनिधि मे विकल अनिल से प्रेरित होकर लहरी कल चूमने चल कर उठती गिरती-सी रुक रुक कर सृजन करेगी छवि गति-विधि मे । बोलो, अन्तिम चरण मे 'छवि' शब्द किस छवि के लिए प्रयुक्त हुआ है ? शुक्ल जो समझते थे कि विनोद उलझ जायेगे और फिर वह स्वयं ही एक पाण्डित्यपूर्ण वक्तृत्व के द्वारा 'छवि' शब्द का अर्थ निरूपण करने के लिए बाध्य होगे, परन्नु विनोद ने तत्काल उत्तर दिया - "लहरी का गन्तव्य कूल है। वही उस प्रकृति का पुरुष है। न जाने प्रकृति को पुरुष की छवि का निर्माण करने में कितना समय लगेगा।" शुक्लजी ने बाबू साहब से पूछा, "क्या माप इस उत्तर को सन्तोषप्रद समझते हैं ?" बाबू साहब ने नम्रता से उत्तर दिया, "बात तो एक ही है, परन्तु कही अनेक प्रकार से जा सकती है।" ११४ : प्रसाद वाङ्मय