पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४२०

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X चला गया। उसके जाने पर 'दीन' जी ने गौड जी की तरफ देखकर भीख मारी कि देखो, मैंने धोती के अभाव को प्रकट नहीं होने दिया। शाम को मैं और गोड जी दुकान पर बैठे थे। इधर-उधर की बातों के बाद गौड़ जी ने उन्हे 'दीन' जी का चुटकुला सुनाया और ताईद कराने को कहा, "दुर्गा भी मेरे साथ था।" बाबू साहब ने सीधा सवाल मुझी से किया"का हो दुर्गा, लाला भगवा न दीन ?" भगवा का अर्थ धोती का पिछला छोरे है। गौड़जी का हंसते-हंसते हाल बेहाल हो गया। X आंसू के सम्बन्ध मे मुझे जो कुछ ज्ञात है-रचना के सामाजिक परिपार्श्व को सम्मुख रखते बताऊंगा। ___ 'कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू.' के अनुसार यह तो श्रद्धेय बाबू साहब-महाकवि प्रसाद ही जानते थे कि उन्होने आंसू का प्रणयन जीवन-पथ के किन निर्देशक बिम्बो के बीच में बैठकर कब, कहां और कैसे आरम्भ किया होगा। 'कब' इसलिए कि महाकवि का काव्य-लेखन-प्रहर बहुधा उन्हे स्वय भी अज्ञात रहता था। 'कहाँ' इसलिए कि लिखने के लिए दूकान से मकान तक ही नही, रास्ते भर की भूमि उनके लिए 'सकल भूमि गोपाल की' थी। 'कैसे' इसलिए कि महाकवि काव्य की विषय-वस्तु को ओढता नही, बिछाता था, और उस पर अत्यन्त सावधानी से चलता था। पता नही कि सर्वोत्तम काव्य देने के निखार सुधार के अधीन आंसू' की पहली चार पंक्तियां ही कितने संस्कारो के बाद अपने प्रस्तुत रूप में अवतरित हुई होगी। आंसू की मनोभूमि से सीधा परिचय न होने के कारण घटनाओ के सूत्रो को आपस मे जोड कर उनसे 'आंसू' जैसी एक अपूर्व काव्यकृति के वस्तु भाग की सम्पूर्ण अर्थवत्ता कल्पना क्षेत्र मे नही बांधी जा सकती। यदि ऐसा करना वास्तविक न हुआ तो यह महाकवि के प्रति अन्याय होगा। कवि सत्य की भांति अपुनरादेय है। उसे एक बार ग्रहण कर चुकने पर पुनः ग्रहण करने योग्य कुछ शेष नही बच रहता। उसका प्रत्येक छन्द, प्रत्येक प्रवचन समय की शिला पर ठोकी हुई भीमकाय कील की भांति जैसे जैसे मानवी अनुभव का दिन चढ़ता है, अपनी परछाई से काल-ज्ञान कराती है। काल-ज्ञान कवि का अपना भोग भी होता है जो कल्पना को केवल उच्छिष्ट रूप मे ही मिल पाता है। ऋत-भोग तो कवि के साथ गया। अब यदि हम अपने अन्त मान-दण्डों से वस्तु-भाग मे अपनी विसंगति का आरोप करे तो हम यह भूल जायेंगे कि जिसने ११६ : प्रसाद वाङ्मय