पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४२१

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पहले पड़ाव में आंसू लिखा है उसी ने अगले पड़ाव में 'कामायनी' लिखी हैं। कामापनी का भाव-बीज, अपने पहले जन्म में 'आंसू' की भूमि में अपने मौलिक रूप में प्रस्फुटित हो चुका है । ऐसा ही कुछ जान पड़ता है। ___बांसू' के जन्म के समय देश की राजनैतिक, समाज की बौद्धिक और परिवारों की विघटनकारी परिस्थितियां क्या थीं, कैसे-कैसे लोग बाबू साहब के पास उठते बैठते थे, साहित्यिकों का.पारस्परिक वैमनस्य और पुरानी लीक से हटकर कुछ नया लिख सकने में समर्थ लोगों के प्रति उनका विद्वेष प्रच्छन्न होने पर भी कितना मुखर रहता था, क्या बातें होती थीं, आदि कुछ तथ्य कहने को तो कहे जा सकते हैं परन्तु वादों और प्रदर्शन से सर्वथा बिमुख एकान्त-स्वाध्यायी और स्थितप्रज्ञ चिन्तक बाबू साहब के 'आंसू' से यदि फिर भी उनका कोई सीधा सम्बन्ध न जुड़ता हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा और सत्य मौलिक हैं और वातावरण ऐसी आत्मनिर्भर कृति पर अपना प्रभाव इसीलिए आरोपित नहीं कर सका। जब कभी कोई 'घनीभूत पीड़ा आंसुओं के रूप में आँखों से बाहर आ जाती' तो बाबू साहब ऐसा अनुभव करते जैसे किसी नये महत्वपूर्ण तथ्य का पता लग गया हो । वह उस समय बौद्धिक धरातल को छोड़कर वहां पहुंच चुके होते थे जहां उन बांसुओं में शब्द होते थे, छन्द होते थे और काव्य होता था। उस समय वह परमानन्द की स्थिति में होते थे । 'आंसू का निकलना उन्हें दुदिन-सा दिखाई देता था और फिर उस दुर्दिन को सुदिन बनाना उनके लिए अनिवार्य हो जाता था। इसीलिए कुछ लिखकर उस दिन को सुदिन बना लिया करते थे। यदि ऐसा न होता तो वह सदैव बना रहने वाला मन्दस्मित, कभी उन्मुक्त हास और कभी आँखों में आंसू ला देने तक वनी रहने वाली हंसी का क्रम कैसे सम्भव हो सकता था? जहां तक आनन्द की सीमा है, उसमें वे पार्थिव शिवत्व पा चुके थे। अंग्रेज सरकार का दमनचक्र चल रहा था। 'उग्र' या 'धूमकेतु' उपनामों से पाण्डेय बेचन शर्मा बनारसी भाषा और लय में लोक-गीत लिखकर छपवाते थे और उसके परचे एक आना प्रति परचे की दर से हाथोहाथ बिक जाते थे यद्यपि उन दिनों एक आने का बड़ा मूल्य होता था। वह परचे कुछ सुरीले गले से गा सकने वाले लड़कों द्वारा गाकर बेच जाते थे । बाबू साहब की दुकान के पास खड़े होकर एक लड़के ने गाना आरम्भ किया “यारो अंगरेज रजवा कटारी मारे ना। देके जन धनवा हरउली जरमनवा, सो बिसारे सारे ना।" इस 'सारे' पर बाबू साहब बहुत देर तक हंसते रहे। मैं, व्यास जी (विनोदशंकर व्यास) और गौड़ जी (कृष्णदेवप्रसाद जी) उन्हें अपना अग्रज मानते रहे। संस्मरण पर्व : ११७