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प्लावन को चुनौती दे सकने योग्य बन जाती है। मानस-सोगर के नट पर आंसुओं के कुछ बुदबुद 'एकोऽहंबहुस्याम' जैसी मुद्रा में कलकल ध्वनि से विस्मृत बीती बातों की मंत्रणा करते सुनाई देते हैं। मंत्रणा के ये स्वर भी इतने धीमे हैं कि बुबुदों का उन्मीलन-निमीलन कोई प्रतिध्वनि उत्पन्न नही कर पाता । कवि की प्रतिध्वनि शून्य क्षितिज से टकराकर लौट आनी है-यह प्रलय के बाद उस नयी सृष्टि के उदय का चित्र है जिसमे क्षितिज के स्थान पर अभी तक केवल शून्य है । इसीलिए कवि की प्रतिध्वनि क्षितिज को लांघकर पार जाने के स्थान पर फिर अन्तस्तल में ही लौट आती है। उसका लौटना इतना कारुणिक है कि इधर वह बिलख-बिलख कर टकरा-टकराकर फेरी लगाती रहती है और उधर आंसुओं की सृष्टि का क्रम चलता रहता है। इस प्रकार ऊपर के चार छन्दो मे किये गये आंसू की उत्पत्ति के वर्णन को निबन्धात्मक आरम्भ भी कहा जा सकता है और पिण्डगत सृष्टि के तत्वों का ब्रह्माण्डगत सृष्टि की शब्दावली मे लाक्षणिक काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण भी कहा जा सकता है। परन्तु फिर वही बात आ जाती है कि निश्चित रूप से दोनो तथ्यो से किसी को न अस्वीकार किया जा सकता है और न कहकर निर्धारण कर सकने का अभिमान ही किया जा सकता है। ___ब्रह्माण्डगत सृष्टि मानस-सृष्टि का प्रारूप है इसलिए दोनो मे सागोपाग समानता भी प्राकृतिक है। कवि अपने आपको विराट् सृष्टि का (जिसमे प्रमुख स्वर चेतना का होता है) सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग मानता है। कहीं-कही तो उसे वह भी अपनी मानस-सृष्टि के सामान्य में न्यून दिखाई देती है। वह जानता है कि व्यष्टि के योग से ही समष्टि बनती है, और फिर उस समष्टि का निरूपण भी व्यष्टि द्वारा ही किया जा सकता है। इसी प्रकार सृष्टि के रहस्यों का उत्तरोत्तर पटोत्तोलन भी व्यष्टि द्वारा ही किया जाता है और उस व्यष्टि को शब्द सामर्थ्य देना प्रकृति का काम नही प्रत्युत स्थल और मूक्ष्म दोनों प्रकृतियों को अत्मसात् कर लेनेवाले कवि का काम है। अगले छन्द मे मानवी चेतना के फलस्वरूप अस्तित्व पानेवाली बाह्य प्रकृति किसी मूल प्रकृति की प्रतिछाया जैसी दिखाई देती है। आकाश मे व्योमगंगा के तारे इस प्रकार छिटके हुए है कि उसके दोनों छोर मेरी चेतना तरंगिणी की मृदुल हिलोरों के समान दिखाई देते है । आकाश-गंगा मे जल का आरोप है, जैसे तारे भी नन्हे प्रकाश विन्दुओं के रूप में मानस-लोक के व्यथाजन्य आंसुओं के रूपान्तर मात्र हैं। यही कारण है कि सृष्टि की उषा और सन्ध्या कवि से उसके दुखसुख मांग कर अपना श्रृंगार किया करती है। १२२ : प्रसाद वाङ्मय