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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३६

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मण को विवेक का प्रकाश मिटा कि हृदय पुलिन पर अवसाद का अंधकार कालिन्दी की श्यामल लहरों की भांति बहने लगा। यह स्वाभाविक ही था कि उस अन्धकार को रात समझ कर हृदय कमल बन्द हो जाते और प्रकृति का सारा कलरव उस अन्धकार में समाकर इस प्रकार नीरव हो जाता जैसे कमल कोषों में भौरों के बन्द हो जाने पर उनकी स्वर मुरली गूंगी हो जाती है। और फिर गुनगुन भी भीतर ही भीतर घुटकर मौन हो जाती है। जनवरी १९६४ में लखनऊ की संस्था साहित्यिकी ने प्रसाद मन्दिर में 'हीरक जपन्ती' का भव्य आयोजन किया। यह संस्था अनेक वर्षों से प्रसाद जयन्ती के पर्व का श्रद्धापूर्वक आयोजन करती आ रही है उसके अन्तस्पन्द मेरे अनुजकल्प डा० गिरीशचन्द्र त्रिपाठी ने हीरक जयन्ती के आयोजन की अपनी सात्त्विक इच्छा मुझे बताई और वह आयोजन महिमामयी महादेवी के अधिष्ठातृत्व में सम्पन्न हुआ। उत्सव की समाप्ति पर साहित्यिकी के अभ्यागत जनों का आंगन में रात्रि भोज हो रहा था कि व्यासजी (पं० विनोद शंकर व्यास) ने ललकारा 'दुर्गा (पं० दुर्गादत्त त्रिपाठी) बाबू साहब को प्रसन्न करने के लिए हमें आँसू का सम्पूर्ण पाठ उन्हीं स्वरों में करना चाहिए'-'यहाँ कौन भागता है' त्रिपाठीजी ने कहा । आँसू की प्रतियां मंगाई गईं और पाठ चला आँसू के उभय साक्षी दो-दो चार-चार छंदों का बारी-बारी से पाठ करने लगे। त्रिपाठीजी वीच-बीच में भावमय विश्लेषण भी करते थे। प्रायः तीन बज गए और व्यासजी की 'कागावासी' का समय समीप आया। (अरुणोदय से पूर्व जो भांग छनती है उसकी आख्या 'कागाबासी' होती है, यह काशी का लाक्षणिक शब्द है) सभा विसजित हुई। त्रिपाठी जी आँसू पर कुछ लिखें-मैंने आग्रह किया-फलस्वरूप उनकी ये पंक्तियां मिलीं। आँसू के पाण्डुलिपि संस्करण की बात मन में है उसमें देने के लिए भी ऐसी सामग्री वांछित रही। -रत्नशंकर प्रसाद १३२: प्रसाद वाङ्मय