पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३७

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प्रसाद -पं० विनोदशंकर व्यास पं० विश्वम्भरनाथ जिज्जा ने व्यासजी का परिचय पूज्य पिताश्री से कराया था। कुछ समय बाद कृतियों के प्रकाशन को लेकर थोड़ा मतभेद हो गया जिसका एकांगी और आंशिक उल्लेख भी यहाँ है-मेरे यहां गंगाराम नाई कचहरी की पैरवी भी करता था किन्तु उसके अनुचित कामों से जब सांपत्तिक क्षति आशंकित होने लगी तब उसे निकाल देना आवश्यक हो गया। उसका उल्लेख व्यासजी की पुस्तक 'प्रसाद के समकालीन' में हुआ है। मेरे परिवार से संबंधित आनुपूर्वी प्रसंगों को संकलित करने के लिए व्यासजी ने उसे उपयोगी माना यद्यपि उसकी भी तत्सम्बन्धी जानकारी बहुत सीमित रही, जिससे अनेक भ्रान्त बाते यहा आ गई है जिनका निराकरण टिप्पणियों में कर दिया गया है। यद्यपि, एक समकालीन विद्वान ने अपना संस्मरण देते समय इसे सम्मिलित करने का निषेध भी किया जिसका उल्लंघन मैं इसलिए कर रहा हूँ कि इसके कारण भविष्य मे 'तिलका ताड़' न बन सके। यदि तथ्यवादी व्यासजी को अविकल बातें जाननी रही तो उन्हें प्रामाणिक स्रोत--'प्रसादजी की आदरणीया भाभी' से जिज्ञासा करनी थी जो उन्हे सुलभ भी रहा किन्तु वे तो 'तिस्रो पुंसि विडंबनम्' वाले मार्ग के पथिक रहे । तथ्यवादी जब तथ्यानुकूलन करता है तब वह उभयतो भ्रष्ट हो जाता है। (रत्नशंकर प्रसाद) उस दिन शिवरात्रि थी। कुछ अच्छा नही लग रहा था। मन्दिर मे तोरण और वन्दनवार लग रहा था । बगीचे में खेमा गड़ा हुआ था। भांग बन रही थी। पड़ोसी और मित्रों का जमघट था। मेरे पहुंचने में कुछ विलम्ब हुआ । प्रसादजी मुझे देखते ही बोल उठे-"दो वार नौकर जा चुका, आपको अवकाश ही नही मिलता !" "घर का सब प्रबन्ध करके आ रहा हूँ। अब निश्चिन्त हूँ। कहिये, क्या आज्ञा है ?"-मैंने कहा। "आज गाने के लिए किसको बुलाया जाय, यह निश्चय नही हुआ है। तुम्हारे ऊपर ही इसका निर्णय छोड़ा गया है !" । नगर की सभी कुशल गायिकाओं का वर्णन होने लगा। बहुत देर में निर्णय संस्मरण पर्व : १३३