पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३८

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हुआ कि किसको बुलाया जाय। नाज़िर को आज्ञा मिली। नौबजे रात्रि का समय दिया गया। संध्यासमय केसरिया छनकर तैयार थी। सब लोग छानकर मस्त हो रहे थे। बैठक में मंडली जमी थी। अट्टहास से कमरा गंज रहा था।' प्रसादजी शिव मन्दिर में श्रृंगार कर रहे थे। घण्टा बजा, शंखनाद हुआ, विधिवत् पूजा करने के बाद मस्तक में चन्दन लगाये वे मन्दिर से बाहर निकले। गायिका आ गई थी। गाना आरम्भ हुआ। भंग की तरंग और संगीत की लहर-बहर में लोगों का हृदय घंटों तैरता रहा। दो बजे रात में मंडली विसर्जित प्रति वर्ष शिवरात्रि के दिन ऐसा ही क्रम चलता रहा। हम दोनों शिव के उपासक, शंकर के दास-मृत्यु के देवता के सम्मुख अपना मस्तक नत करते । (संहार सृजन से युगल पाद ---कामायनी सं०) आज अकेला मैं क्या अनुभव कर रहा हूँ, लेखनी में इतनी शक्ति नहीं जो उसे व्यक्त कर सके ! फिर भी प्रसाद के सम्बन्ध में लिखे हुए अपने संस्मरण को क्रमबद्ध कर रहा हूँ। सं० १९४६ में कवि प्रसाद का जन्म काशी के विख्यात कान्यकुब्ज वैश्य कुल में हुआ था। उनके पितामह बाबू शिवरत्न साहु बड़े दानी और उदार पुरुष थे। उनके पिता बाबू देवीप्रसादजी भी विद्वानों और कलाविदों का सदैव आदर करने में प्रसिद्ध थे। जबलपुर के पास नर्मदा-तट पर झारखंड नामक स्थान है। संवत् १९५८ में १. महाशिवरात्रि के प्रातः से दूसरे दिन प्रात: तक बैठक वाले कमरे में अट्टहास गूंजने का प्रश्न ही नहीं सभी कार्यकलाप शिवालय पर ही केन्द्रित रहते, उस भारी व्यस्तता वाले दिन मिलने वाले लोग भी वहीं बातें कर लेते। इसीलिए कामायनी के शेष कुछ छन्द और आमुख वहीं लिखे गए। ऐसी वातों का कोई उल्लेख नहीं ! (सं०) २. पूज्य पिताश्री के ललाट पर सदैव विभूति ही देखी गई कभी चन्दन नहीं, महा शिवरात्रि के दिन वे महाकाल का भस्म प्रसाद (चिता भस्म) भी धारण करते थे। (सं०) ३. झारखण्ड बिहार में है : देवघर अर्थात् वैद्यनाथधान उत्तरभारत का एक प्रमुख तीर्थ उसी क्षेत्र में है, वहां भी पूज्य पिताश्री का चूड़ा कर्म हुआ : लौटने पर लोग उन्हें स्नेह से झारखण्डी कहने लगे। नर्मदा के तट पर झारखण्ड बताने वाले 'झारखण्डी' के कितने समीप रहे-वे ही बता सकेंगे। नर्मदा में गिरने की १३४: प्रसाद वाङ्मय