पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५

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स्कन्दगुप्त के शिलालेखों में जो पद्य रचना है, वह वैसी ही प्रांजल है जैसी रघुवंश की-'व्यपेत्य सर्वान्मनुजेन्द्र पुत्रान् लक्ष्मीः स्वयं यं वरयाञ्चकार' इत्यादि में रघुवंश की जैसी ही शैली दीख पड़ती है। 'स्कंदेन साक्षादिव देवसेनाम्' इत्यादि में स्कन्दगुप्त का स्पष्ट उल्लेख भी है और कुमारगुप्त के तो बहुत उल्लेख हैं। रघुवंश के ५, ६, ७ सर्गों में तो अज के लिए कुमार शब्द का प्रयोग कम से कम ११ बार है। विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि उनका अन्तिम जीवन पराजय और दुःखों से गम्बन्ध रखता है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त के जीवन काल में साम्राज्य की वृद्धि के अतिरिक्त उसका ह्रास नही हुआ। यह स्कन्दगुप्त के समय में ही हुआ कि उसे अनेक षड्यन्त्रों, विपत्तियों तथा कष्टों का मामना करना पड़ा। जिस समय पुरगुप्त के अन्तर्विद्रोह से मगध और अयोध्या छोड़कर स्कन्दगप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनायी और माम्राज्य का नया संगठन हो रहा था उसी समय मातृगप्त को काश्मीर का शासक नियुक्त किया गया। यह समय ईसवीय सन् ४५० से ५०० के बीच पड़ता है। ४६७ ईसवीय में स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य । अन्त हुआ। उसी समय मातृगप्त (कालिदास) ने काश्मीर का राज्य स्वयं छोड़ दिया और काशी चले आये। अब बहुत से लोग इस बात की शंका करेंगे कि कहाँ उज्जयिनी, कहाँ मगध, कहाँ काश्मीर फिर काशी और सबके बाद सिंहल जाना—यह बड़ा दूरान्वय-मम्बन्ध है। परन्तु उस काल में सिंहल और भारत मे बड़ा अच्छा मम्बन्ध था। महाराज समुद्रगुप्त के समय में सिंहल के राजा मेघवर्ण ने उपहार भेजकर बोधगया मे "विहार' बनाने की प्रार्थना की थी। महावंश और समुद्रगुप्त के लेख में इसका सकेत है और महाबोधि विहार सिंहल के राजकुल की कीत्ति है, तब से मिहल के राजकुमार और राजकुल के भिक्षु इस विहार में बराबर आते रहते थे । बोधगया से लाया गया पटना म्युजियम में एक शिलालेख है-(नम्बर ११३), यह प्रमाण प्रख्यात कीत्ति का है-'लङ्काद्वीप नरेन्द्राणां श्रमणः कुलजोभवत् । प्रख्यातकीतिर्धर्मात्मा स्वकुलाम्बर चन्द्रमा । महानामन् के शिलालेख से इसकी पुष्टि होती है। 'संयुक्तागमिनो विशुद्धरजसः सत्वानुकम्पोद्यता शिष्यायस्य सकृद्विचेरुरतुलालङ्काचलोपत्यका तेभ्यः शीलगुणान्वितश्च शतशः शिष्याः प्रशिष्याः क्रमात् जातास्तडानरेन्द्रवंशतिलकाः प्रोत्सज्य राज्यश्रियम' जब, राजकुल के श्रमण और राजपुत्र लोग यहाँ तीर्थ-यात्रा के लिए बराबर आते थे और संस्कृत कविता का प्रचार भी रहा तब उस काल के सर्वोच्च कवि की मैत्री की इच्छा स्वाभाविक है और उस नष्टाश्रय महाकवि के साथ मैत्री करने में स्कंदगप्त विक्रमादित्य-परिचय : ४५