पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४५

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वेश्या भी समाज का अंग है, तो सबके साथ उसका भी समुचित ध्यान रखनामजाक नहीं, मुनासिब है ! | सो, मैं स्मरण करने बैठे तो दिवंगत श्री जयशंकर 'प्रसाद' की याद में पूरी पोथी उतर आए; पर यहां मैं केवल तीन-चार घण्टे की याददाश्त पेश करना चाहूंगा, जिसमें चार आदमियों ने साथ बैठकर (तब) बनारस की विख्यात गायिका सिद्धेश्वरी का गाना सुना था। बात सन् २८ की है। मैं कलकत्ते से बनारस चन्द दिनों के लिए आया था। उन्हीं दिनों आये पण्डित रूपनारायण पाण्डेय, जो भाई विनोदशंकर के मेहमान थे। मेरा भी अधिकांश समय विनोद के मान-मन्दिर ही में कटता था और दो दीवानों के जोड़ या संगति में खूब कटता था ! इसका अर्थ यह नहीं कि हम आदर्श प्रेमी की तरह हमेशा गले में बाँहें डाले ही रहते थे ! आपस मे हम लड़तेझगड़ते भी कम नहीं, पर लाख लड़ाइयों के बाद फिर घुटने-छनने लगती थी। जयशंकर मेरी प्रतिभा से चमकते, उग्रता से बिचकते थे। वह नहीं चाहते थे कि विनोद और उग्र की इतने निकट से इतनी गहरी छने । वह स्वयं विनोदप्रिय थे, पर विनोद को पसन्द उग्रता ! सो, जब हम दोनों डोर और पतंग की तरह जुड़कर बुरी या भली हवा में उड़ते, तव इच्छा या अनिच्छा से, लम्बे पुछल्ले की तरह जयशंकर जमीन से बहुत आगे तक बढ़-चढ जाते थे। विनोद ही को जयशंकर क्यों इतना चाहते थे, जबकि उनके वक्त के काशी में एक-से एक धुरन्धर प्रतिभाशाली साहित्य-महारथी थे; जैसे-प्रेमचन्द, दीन, रामचन्द्र शुक्ल, रामदास गौड़ वगैरह । मेरी राय में 'प्रसाद' गरीबों के नही, अमीरों के कवि थे - इमारत-पसन्द ! कई पुश्त के सुखी विनोदशंकर के पास इमारत थी-नस्ली; इधर प्रेमचन्द, दीन वगैरह के पास क्या धरा था- 'दर नही, आस्ता नही !' विनोद के बाद या पहले, उनके एक अन्तरंग जिगरी और है कला-'वान' राय कृष्णदास, जिनकी रईमी, इमारत, नजाकत हिन्दी में मशहूर है ! सन २८ में मैं २८ वसन्त-बिहारी, अंग-अंग पर यौवन, उमंग से रंगीन हंसता और विनोद भी वैसे ही। याने नितलौकी-नीम का सम्बन्ध ! रूपनारायणजी को अनायास निकट पा मन में मस्ती ने मौज मारा-"क्यों न आज चार यार बैठकर निछद्दम में-किसी का गान सुनें ?" तय हुआ, सिद्धेश्वरी बाई को बुलाने का। तय हुआ, मजलिस हो विनोद की छत पर, चांदनी रात में छांदनी पर । तप हुआ, यार रहे महज चार-जयशंकर, रूपनारायण, विनोदशंकर, उग्र । जब मैं-'अलि, पतंग, गज, मीन, मृग, जरत एक ही आंच'-के मानी टटोलता था, तब जयशंकर 'प्रसाद' इत्र के अच्छे पारखी, खान-पान दोनों के सही शोकीन, रेशम-पश्मीना-पसन्द, सोने की सिकड़ी गले में, नौरनों की अंगूठी अंगुली में, साथ ही संगीत को परखकर पहचानने मंस्मरण पर्व : १४१