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से उसे पान दे रहे थे। मुझे कोई ऐसा मौका नहीं मिल रहा था कि उसे सचेत करूं । अन्त में मुझे मौन देखकर वह मेरी भी प्रशंसा करने लगे। ____ मेरे सम्बन्ध में उनका कुछ कहना ही पर्याप्त था। मैंने कहा-मेरी प्रशंसा जो करता है, उसको मैं महामूर्ख समझता हूँ। ____ मेरे क्रोध से निकले रूखे शब्दों के कारण वे एकदम मौन हो गये, फिर एक शब्द भी न बोले और कुछ देर बाद चले गये। प्रसाद मुंह फुलाकर बैठे थे। मुझसे कहने लगे-आप कभी-कभी ऐसी बातें करते हैं, जो आपको शोभा नही देती ! प्रसादजी 'तुम' कहकर ही मुझ से बातें करते थे; लेकिन दो ही स्थिति में वह 'आप' का प्रयोग करते थे-या तो कभी रुष्ट हों तब, अथवा किसी विशेष व्यक्ति के सम्मुख जब मेरे प्रति कभी आदर का भाव व्यक्त करना चाहते । मैंने कहा- जब तक वह आपकी कीर्ति-गाथा गाता रहा, तब तक तो मैं कुछ बोला नही; किन्तु जब वह मेरी ओर झुका, तब मुझे भी अधिकार था कि मैं उसका उचित उत्तर देता। किसी भीनमा, उत्सव आदि मे प्रमादजी मेरे प्रति आदर और स्नेह का भाव प्रकट करते थे। यह देखकर कुछ लोग मन-ही-मन जलते थे। २५ अक्तूबर १९३६ ई० की एक घटना मेरी डायरी मे नोट है श्री मैथिलीशरण गुप्त को मानपत्र अथवा अभिनन्दन-ग्रन्थ देने के लिए एक सभा हुई थी। प्रसादजी ने कहा था कि तुम्हें घर से लेते हुए सभा मे जाऊंगा। दो या तीन बजे का समय दिया था। मैं उनकी प्रतीक्षा में था। किन्तु वे आये नही । ऐसा कभी नही होता था कि समय देकर फिर प्रसाद न आवे। वे अपने वादे के बडे पक्के थे। ___मैं अकेला ही घर से चला। सभा-मण्डप के बाहर खड़ा होकर देखने लगा। काशिराज आदित्यनारायण सिंह सभापति का आसन ग्रहण किये हुए थे। मंच पर श्री मैथिलीशरण गुप्त उनके पास बैठे थे। प्रथम पंक्ति की कुसियों की ओर मेरी दृष्टि गई --प्रसादजी हाथ हिलाकर मुझे बुला रहे थे । इतने मे एक प्रबन्धकर्ता मुझे लेने के लिए आये। मैं भीड़ से निकलता हुआ वहां पहुंचा प्रसादजी ने एक कुर्सी मेरे लिए पहले से ही सुरक्षित रखी थी। मैं भी बैठा। भाषण, कविताएं होती रही। सभा भंग होने पर मैथिलीशरण जी के साथ प्रसादजी तांगे पर बैठे) मैं दूर खड़ा था। गुप्तजी के कई घनिष्ट साथी उनके साथ जाने की उत्कण्ठा में थे। प्रसादजी ने मुझे बुलाते हुए कहा-बैठो न । उस दिन सन्ध्या समय पण्डित जवाहरलाल जी का जुलूस मैंने प्रसादजी के साथ ही देखा था। संस्मरण पर्व · १४३