पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४८

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प्रसादजी न तो इमारत-पसन्द थे और न झोपड़ी-पसन्द । उन्हें समझना अत्यन्त कठिन था। वे एक रहस्यपूर्ण मनुष्य थे। कभी तो बालकों की तरह सरल दिखाई पडते, और कभी अकडकर अटल हिमाचल हो जाते। आगा हश्र काश्मीरी पारसी स्टेज़ के विख्यात और सफल नाटककार थे। वे उर्दू नाटको के शेक्सपियर माने जाते थे। वे स्वभाव के बहुत ही उदंड थे और बिना हिचक के अपशब्दों का प्रयोग कर डालते थे। शराब के नशे में सदैव मस्त रहते । उनका व्यक्तित्व भी विशाल और प्रभावशाली था। प्रसादजी की दुकान के पास ही उनका मकान था। जब वे बनारस आते तो उसी रास्ते से आते-जाते दिखाई पडते थे। प्रसाद से सामना होने पर भी साहबसलामत न होती थी। दोनों एक-दूसरे को जानते थे, किन्तु दोनो ही अपनी-अपनी अकड़ मे थे। कितने आश्चर्य की बात है कि दोनों प्रकाण्ड नाटककार, जीवन भर सामना होने पर भी एक-दूसरे से बोले नही ! ___ मैं आगा साहब से परिचित था। प्रसादजी की दूकान पर मुझे देखकर वह रुक जाते । मैं खड़ा हो जाता, उनके साथ चलने लगता, वे मेरे कन्धे पर हाथ रखे बड़ी आत्मीयता से बाते करते रहते। पान खिलाकर जब उनके साथ मै दूकान पर वापस आता, तो वे प्रसाद के प्रति उपेक्षा का भाव धारण कर आगे बढ जाते थे। आगा साहब की उद्दण्डता और स्पष्टवादिता पर मैं मुग्ध था। उनके प्रति मेरे हृदय मे अत्यधिक आदर था; किन्तु प्रसादजी उन्हे अशिष्ट समझते थे। ___ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रसाद की कविताओं के सम्बन्ध में कुछ उपदेश दिया, यह बात उन्हे इतनी बुरी लगी कि उनके समय में कभी भी 'सरस्वती' के लिए कोई रचना उन्होने नही भेजी। इसी मतभेद के कारण ही 'सरस्वती' की जोड़ की अन्य पत्रिका 'इन्दु' का प्रकाशन भी उन्ही की प्रेरणा से हुआ। कुछ लोगों की धारणा थी कि प्रसाद के नाटक रंग-मंच के उपयुक्त नहीं होते। इस बात से प्रसादजी को बडी चिढ थी। वे रुष्ट होकर कहते-हो, पारसी स्टेज की अस्वाभाविक उछलकूद मेरे नाटको मे नही है। वैसा मनोरंजन में किसी तरह भी नहीं देना चाहता, भले ही मेरे नाटक रंग-मंच के उपयुक्त न हों! उन दिनों भारतेन्दु नाटक-मण्डली ने प्रसाद का 'अजातशत्रु' आदि कई नाटक रंग-मंच पर सफलतापूर्वक खेले थे। मैं उनके साथ देखने गया था। उस सफलता में उनकी भीतरी प्रसन्नता छिपी हुई थी। ___ मेरा अनुमान है कि अपनी न झुकनेवाली प्रकृति के कारण ही वे खुलकर किसी से प्रेम नहीं कर सके । जब से मेरा-उनका साथ हुआ, मैंने कभी उन्हें किसी स्त्री के आतंक में नही देखा। सौन्दर्य के प्रति आकर्षण अवश्य था, और किसी अनोखी वस्तु के सम्मुख आ जाने पर वे अपने चश्मे के शीशे को रूमाल से साफ करने लमते थे। १४ : प्रसाद वाङ्मय