पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४६

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अपने को धन्य समझनेवाले कुमारदास की कथा में अविश्वासका कारण नहीं है। यदि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी होकर राजमित्र के पास इनका सिंहल जाना ठीक है तो यह कहना होगा कि 'मेघदूत' उसी समय का काव्य है और देवगिरि की स्कन्दराज-प्रतिभा उनकी आंखों से देखी हुई थी जिसका वर्णन उन्होंने 'देवपूर्वगिरि ते' वाले श्लोक में किया। यदि ५२४ ईसवीय तक कालिदास का जीवित रहना ठीक है तो उन्होंने गुप्तवंश का ह्रास भी भलीभांति देखा अथवा सुना होगा रघुवंश में वैसा ही अन्तिम पतनपूर्ण वर्णन भी है। कुमारदास का सिंहल का राजा उसी काल में होना और सिंहल में कालिदास के जाने की रूढ़ि उस देश में माना जाना, उधर चीनी यात्री द्वारा वर्णित कालिदास का मनोरथ को हराना, दिङ्नाग कालिदास का द्वन्द्व, विक्रमादित्य और मातृगुप्त की कथा का 'राजतरंगिणी' में उसी काल का उल्लेख, हूण-राजकुल मे सुङ्गयुन के अनुसार विग्रह, काश्मीर-युद्ध की देखी हुई घटना-यह सब बातें आकर एक सूत्र मे ऐसी प्रामाणिक हो जाती है कि दूसरे काब्यकार कालिदास को-विक्रम सम्वा, दीप शिखा कालिदास को-मातृगुप्त मानने में कुछ भी संकोच नही होता - जैसा डाक्टर भाऊदाजी का भी मत है। विक्रमांक के समान भोज के पिता सिंधुराज की पदवी साहसांक थी। पद्मगुप्त परिमल ने नवसाहसाक-चरित बनाया था। नंजौरवाली 'साहसाक-चरित' की प्रति में इनको भी कालिदास लिखा । बहुत सम्भव है कि यह तीसरे कालिदास बंगाल के हों, जैसा कि बंगाली लोग मानते है । ऋतुमंहार, पुष्पबाण-विलास, शृंगार-तिलक और अश्वघाटी काव्यों के रचयिता सम्भवत यही तीसरे कालिदास हो सकते है । १. (पृष्ठ ३७) भीतरी-स्तंभ लेख की उद्धत पक्ति 'विनय बल सुनीतैविक्रमेणक्क्रमेण' में 'क्रमेण' शब्द पर विशेष ध्यान दिया जाय तो प्रतीत होगा कि यह स्कन्दगुप्त की मूल उपाधि रही। १४६ ग्रेनवाली उसकी स्वर्ण मुद्राओ (बयानाढेर) में 'जयति दिवं श्री क्रमादित्य ' है। आगे चलकर उसके चांदी के सिक्कों पर 'परम भागवत श्री विक्रमादित्य स्कन्दगुप्त ' मिलता है । अतः उस भितरी-भूमि, जहाँ से 'पितरिदिविमुगेते विलुता वश लक्ष्मी' को 'स्तंभनागोद्यताना' होकर उसने हूण अभियान को अग्रमर किया वहाँ के स्तंभ लेख मे 'विक्रमेण क्रमेण' का 'क्रमेण' मंज्ञा के रूप मे मूल-उपाधिवत् है और आगे चांदी के सिक्कों पर अपने महान विक्रम के कारण 'पर भागवत श्री विक्रमादित्य स्कन्दगुप्तः' में परवर्ती पदवी-विशेषण रूप है जिसमे विक्रमादित्य विभूषित हुआ। (सं०) ४६ : प्रमाद वाङमय