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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५०

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से वे भलीभांति परिचित थे। पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे को खूब अच्छी तरह समझते थे। किन्तु विज्ञान के इस युग मे भी वे वहमी थे ! प्रसाद के वहमी होने के अन्य उदाहरण भी है। घर से कपडा पहनकर बाहर निकले, बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो सहम गये। खाली घड़ा ले जाते देखा तो 'धत् तेरे की'-मुंह से निकल पड़ा, अथवा किसी बातचीत के क्रम मे किसी ने छीक दिया तो उसे अशुभ मानने लगे। इस तरह का उनका स्वभाव था। प्रसादजी के चरित्र और विलास के सम्बन्ध मे इस तरह का विवरण, कुछ लोगों को असंगत और अविवेकपूर्ण प्रतीत होगा | मेरा तात्पर्य स्वप्न में भी न होगा कि अपने पूज्य गुरु के सम्बन्ध मे इस तरह की बाते लिखकर उनके चरित्र मे धब्बा लगाऊँ अथवा लोगों को टीका-टिप्पणी का अवसर हूँ। प्रसादजी का स्वय विचार था कि स्पष्ट रूप से, समय आने पर वे अपनी जीवन-गाथा लिखेगे। समय के साथ उनके विचार भी आगे बढ गये थे। 'जागरण' में प्रकाशित 'चरित्र और कलाकार' शीर्षक सम्पादकीय लेख मे उन्होने अपना मत प्रकट किया था 'यदि कोई कलाकार चारित्रिक पतन के कारण अपने व्यक्तित्व को नष्ट करके भी कला मे कल्याणमयी सृष्टि कर सका है, तो उसका विशेषाधिकार मानते हुए प्राय लोग देखे जाते है""यह नि सकोच कहा जा सकता है कि कलाकार की सौटी उसकी कला है, न कि उसका व्यकत्व.. बिना जले हुए, विदग्ध साहित्य की मृष्टि नही हो सकती, और तब कलाकार अपनी कला मे व्यक्तित्व को खोकर कला के ही रूप से प्रतिष्ठित होता है। उसे जनता का सम्मान मिलता ही है चाहे आज मिले या हजारों बरस बाद !" 'जागरण' के एक अन्य अंक मे फिर वे सम्पादकीय अग्रलेख मे लिखते है - "हम लोग चारित्र्य की खोज इन्द्रियो की ही सीमा मे करते है, जो मन की दासी हैं। मानसिक सदाचार का इनके लिए कोई अर्थ नही । अन्य छल-कपट, विश्वासघात, कृतघ्नता इत्यादि दुर्बलताओ से हम लोग चारित्र्य का अधिकतर सम्बन्ध नहीं रखते । यही कारण है कि रूढियो मे ग्रस्त आलोचक लाग झट मे चरित्रहीनता का सर्टिफिकेट दे देते है।" १ विक्टोरियायी प्योरिटनिज्म उन्हे असह्य था। तब, साहित्य और समाज उस आर्येतर विचारधारा से अभिभूत रहे, उसके प्रतिकार म सम्पादकीय लेख की उधत पक्तियाँ हैं-चारित्रिक स्वलन की वकालत के रूप मे इन्हे लेना ठीक नहीं। इस प्रसंग मे पूर्ववर्ती लेख मे श्री दुर्गादत्त त्रिपाठी कहते है -........ वह अपने मानदण्ड से कवि कर्मा को एक सुस्पष्ट आचार संहिता से शासित समझते थे........। किन्तु, उस आचार सहिता को अमान्य करने से कितनी प्रतिभाओ १४६ : प्रसाद वाङ्मय