पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५१

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कविवर 'निराला' के शब्दों में-'सत् असत् के साथ रमण करता है'-प्रसादजी इसका समर्थन करते थे। प्रसाद अत्यन्त हास्यप्रिय थे। प्रातःकाल से लेकर रात तक जहाँ बैठते, चार आदमी घेरे रहते। उनके यहां दो-एक 'पेटेन्ट' हंसानेवाले, चुटकुले कहनेवाले व्यक्ति रहते थे । प्रसाद जरा बैठे-बैठे छेड़ देते, फिर हंसते-हँसते सब लोटपोट हो जाते थे। वे स्वयं भी बड़ा सुन्दर मजाक करते थे, लेकिन केवल अपने अन्तरंग मित्रों से ही। उनकी चूटकियों का उत्तर देना कठिन हो जाता था। उनके पडोस में बचनू महाराज रहते थे; वे बहुत खुली दिल्लगी करते थे। दूकान पर जब कभी शान्तिप्रिय द्विवेदी आ जाते, तब मभी दिल खोलकर व्यंग्य-विनोद करने लगते। मैथिलीशरणजी के साथ जब स्व० अजमेरी जी आते, तो हंसी का समुद्र उमड़ पडता। बूढ़े-बहरे स्व० पं० केदारनाथ पाठक भी अपना जोड़ नहीं रखते थे। प्रमादजी की दुकान पर जब वे आ जाते तो घन्टों मनोरंजन की बातें होती रहतीं। बाबू रामचन्द्र वर्मा के साथ जब स्व. लक्ष्मीनारायणजी आते, उस दिन तो हंसी की वर्षा होने लगती । उन्हें सभी लोग डॉक्टर साहब कहते थे। वे वृद्धावस्था में भी बड़े ज़िन्दादिल और हंसमुख व्यक्ति थे। उनके चुटकुले बड़े हंसोड़ होते थे। उनकी एक गाद है। उन्होंने कहा था- मैं अखबारों में जब पढ़ता कि अमुक प्रस्ताव 'कसरत राय' से पास हुआ, तो मै समझने लगा था कि 'कसरत राय सम्भवतः लाजपत राय के कोई भाई-बन्धु है ! मेरे यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ। बरही की दावत थी। चि० अमृत और चि० ज्ञानचन्द भी उन दिनों आये हुए थे। ऊपर छत पर बैठे हम लोग बातें कर रहे थे। रात का समय था। प्रसादजी मसनद के सहारे लेटे थे। इतने में मेरे एक परिचित बूढ़े मुंशीजी आये । उनकी सूरत, पोशाक और बातचीत ऐसी होती थी कि अपने आप हमी आ जाती थी। मैने अमृत और जान से संकेत में कहा कि उनसे वह पुस्तकवाली बातें छेड़नी चाहिए। लेकिन प्रसादजी को देखकर गंभीर हो जायगा, सब बाते खुलकर नही बतलाएगा। प्रसादजी लेटे थे; हम सब लोग उन्हें घेरकर इस तरह बैठे कि वे छिप गये। मुंशीजी बैठे। उन्हें यह बतलाया गया कि अमृतलाल इन दिनों सरकारी पुस्तकालय के अफसर हैं और किताबों की खोज में बनारस आये हैं, और मुंशीजी की उज्ज्वल संभावनाएं तिरोहित हो गई–प्रत्यक्ष है। व्यासजी से उनके मौलिक मतभेद का यह एक रहस्य है। गुरु शिष्य को पंक से उबारना चाहते थे किन्तु शिष्य उसी में सुखी थे। फलतः उभय निरुपाय हो गए। और अब, 'भ्रान्त अर्थ बन आगे आए बने ताड़ थे तिल के'- (कामायनी) संस्मरणपर्व : १४७