पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५६

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कूदता, फांदता था। ११-१२ बजे मुझे एक पत्र (बाहर का) प्राप्त हुआ, जिसमे कुछ ऐसी शोकजनक घटनाएं थी, जिसने मुझे बेहाल कर दिया। मैं सच कहता है कि मेरे हृदय की अवस्था (जिस समय तुम आये) इस योग्य नही थी कि तुमसे कुछ भी बातचीत कर सकू। मेरा मन रोने का करता था। सबके सामने रो भी नही सकता पा, इसलिए मैंने दरवाजे बन्द कर लिये । मुझे दुख है कि मैं इस घटना के सम्बन्ध में, किसी से कुछ कह नही सकता, पर इतना विश्वास दिलाता हूं कि उनके होने पर पत्थर-हृदय भी पागल हो जायगा ! विनोद तुम नहीं समझ सके या सकते कि इस समय मेरे ऊपर क्या बीत रही है और मेरे हृदय की क्या अवस्था है ! कभी-कभी जीवन में ऐसा अवसर आता है, जब बोलना-चालना, हंसी-दिल्लगी कुछ अच्छी नहीं लगती । आज मुझ पर वही बीत रही है । ____ विनोद, तुम सहृदय हो; तुम हृदय बेधनेवाली उन घटनाओ का अनुमान कर सकते हो जो आदमी को विरक्त कर देती है। मैं क्या कहूं, किसी तरह अपने को सम्हाल रहा हूँ। तुम्हारा 'सुमन' 'सुमन' आरम्भ से ही अपनी बातों को गुप्त रखते थे। वे खुल कर मित्रो के सामने अपने हृदय की बाते बताना पसंद नहीं करते थे। उनका यह पत्र एक ऐसी परिस्थिति में लिखा गया था, जिसके लिए उन्हे बाध्य होकर लिखना ही पड़ता। वे सिद्धान्त के प्रचारक और आदर्श के आवरण में अपने को छिपाये हुए थे। प्रसाद पर एक आलोचना उन्होने लिखी। प्रसाद ने पढ़कर मेरे सामने फेंक दिया। वह हम दोनों को पसन्द नही आई। मैंने पत्र द्वारा इसकी सूचना सुमन को दे दी। उसके उत्तर में उन्होंने लिखा सस्ता-साहित्य-मंडल अजमेर ४-८-२८ भाई विनोद, तुम शायद एकांगी समालोचनाओ के पक्षपाती हो, इसीलिए मेरी बातों में तुम्हें महत्व नही मालम पड़ता। हृदय विशाल होने पर मित्रों की सच्ची बातें नही खटकती-तुमको मेरी बाते खटकती है तो आश्चर्य है ! सत्य ऐसी ही रूखी वस्तु है। ____ मैं तो हिन्दीवालों के सम्बन्ध में निगश होता जा रहा हूँ। अंग्रेजी मे कैसी मालोचनाएं निकलती है। घनिष्ट से घनिष्ट मित्र साहित्यसेवी की....""गुण-दोष की विवेचना के साथ उसके व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए कैसी सुन्दर आलोच १५२: प्रसाद वाङ्मय