पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

नाएं होती है ! मैंने उसी ढंग पर चलने की कोशिश की थी। लेख छपे या न छपे, मुझे सन्तोष है कि मैंने प्रसादजी के प्रति कर्त्तव्यपालन किया है ! तुम्हारा 'सुमन' सुमन की उड़ान आरम्भ से ही लम्बी होती थी। हिन्दीवालो के प्रति उन्हे घोर निराशा थी, वह सदैव बर्नार्ड शॉ, मैटरलिंक और रोम्यों रोला से कम बाते न करते थे। उनकी बातों लेकर मंडली में काफी मनोरंजन होता था। एक बार उसी ढंग का एक लेख गौड़जी ने भी 'जागरण' के लिए लिखा था। उसका शीर्षक था-- भाई बनार्ड शॉ से भेट ।' १९३० मे सुमन का विवाह हुआ। अब वे पूर्ण गृहस्थ गाँधीवादी के रूप मे सन्तुष्ट और सुखी है। पं० नन्ददुलारे वाजपेयी ने हिन्दू विश्वविद्यालय से एम० ए० पास किया था। वे निरालाजी के गांव के ही रहनेवाले है। अपने अध्ययनकाल से ही वे प्रसादजी के यहां आते थे। प्रेमचन्दजी और मैथिलीशरण गुप्तजी की रचनाओ पर उन्होंने अनेक आलोचनाएं सिमी थी। उनकी आलोचनाओ का उस समय काफी प्रभाव पड़ा था। प्रेमचन्दजी तो उनसे घबडा उठे थे और उनके प्रति शिष्टाचार भी भूल जाते थे। प० नन्ददुलारेजी 'भारत' के मम्पादक होकर प्रयाग गये। उनकी सरलता इस पत्र से प्रकट होती है लीडर प्रेस प्रयाग १०-९-३० प्रियवर विनोद जी, भारत के लिए प्रसादजी की कहानी मिली, छप रही है। भारत बिना आप लोगो के, अच्छे ढंग से नही निकल सकेगा। मैं तो इस क्षेत्र मे अभी रंगरूट ही कहा जाऊँगा....."आपके सहृवय भाव को मैं पहचान गया हूँ, इसीलिए मुझे अपने व्यवहार की चिन्ता नही रहती। आपका ही नन्ददुलारे नन्ददुलारजा के प्रति प्रसादजी का भी स्नेह-भाव था। प्रसादजी के प्रयत्न से ही वे 'भारत' के सम्पादक नियुक्त हुए थे। प्रसाद के आदेशानुसार ही प० वाचस्पति ाठक भारती भण्डार के व्यवस्थापक नियुक्त हुए । प्रसाद अपने सभी स्नेह-भाजनो के प्रति सदैव अपना कर्तव्य पालन करते रहे। केवल एक मैं ही ऐसा हूं। जो उनकी विशेष कृपा का पात्र होते संस्मरण पर्व : १५३