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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७१

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इस रचना में दो बाते महत्वपूर्ण है-एक तो इसका छन्द उर्दू का है, दूसरे शब्दों का उच्चारणं भी उर्दू की भांति हलन्त तथा दीर्घ स्वरों के ह्रस्व एवं ह्रस्वतर रूप में । उनकी यह प्रवृत्ति उन दिनोंवाली अन्य कविताओं में भी बहुधा विद्यमान है। काशी के इस त्रिदिवसीय पडाव मे उनकी आत्मीयता की एक अभिव्यक्ति ने मुझे चकित और पुलकित के साथ-साथ गौरवान्वित भी कर दिया। उन्होंने विशेष शोधपूर्वक चन्द्रगुप्त मौर्य पर एक अध्ययनीय पुस्तिका प्रकाशित कर रखी थी जो समर्पित थी उनके इस अभिन्न को। कसी पुलक हुई मुझे उस समय जब उन्होंने उसकी हस्ताक्षरित प्रथम प्रति मुझे दी--प्रेमालिगन सहित । रहस्यमय वह थे ही, मुझको कोई सुनगुन न लगने दी थी। अतः इस अकित विस्मयपूर्ण आनन्दोद्रेक ने मुझे विभोर कर दिया। यों प्रमोदपूर्ण तीन दिन बाद प्रयाग लौटा। 'सरोज' को तडपड मुद्रित कराया। सुन्दर सावरण प्रतियां सिल-सिलाकर तैयार हुई। किन्तु जब पंजीकरण का आवेदनपत्र दिया गया तब पांच सौ की जमानत तलब हुई । सारे आश्वासन का हवाई किला हवा हो गया। लम्बा बिल चुकाने और प्रतियो को रद्दी के भाव बेचने के साथ 'सरोज' का विस्मा तमाम हो गया। इलाहाबाद महीना सवामहीना और रहकर जुलाई मे काशी लौट आया। उसके बाद ही यह विचार हुआ कि भाद्र शुक्ल मे भारतेन्दुजी की जयन्ती उनके जन्मतिथि पर मनाई जाय । हिन्दी मे साहित्यिक जयन्ती मनाने का यह पहला अवसर था। यह सूझ हिन्दी के मिशनरी मेवक और जीवित विश्वकोश पं० केदारनाथ पाठक की थी। प्रसादजी, स्व० ब्रजचन्द्र और मैंने इस प्रस्ताव का स्वागत ही नहीं किया, उसे कार्यान्वित करने मे जुट भी गए। पुरातनवादियो को तो यह समारम्भ कुछ जंचा नही और वे अन्त तक रोडे अटकाते रहे किन्तु जैसी उत्साहपूर्ण सुधर और सुधरी वह जयन्ती हुई वैसी आज तक देखने मे न आई । भारतेन्दुजी के तैल चित्र के फ्रेम पर विविध रग और सुगन्ध वाले फूलो का, जिसमें स्थान-स्थान पर सुन्दर पत्तियां भी थी, एक दर्शनीय चौखटा बनाकर लगा दिया गया। जयन्ती के सभापति थे महामहोपाध्याय पं० अयोध्यानाथजी। थे तो वह काशी के फलित ज्योतिष-सम्राट किन्तु बहुत ही सहृदय भी थे । अपूर्व मिठास भरा हारमोनियम बजाते और ब्रजभाषा की कविता भी करते थे, उपनाम था 'अवधेश' वह भारतेन्दुजी के भक्तों मे थे और उनके छन्दों मे भारतेन्दुजी की झलक रहती थी। खेद है कि उनका कोई संग्रह न प्रकाशित हुआ। निदान, अवधेशजी के मंचासीन होने पर भारतेन्दु नाटकमण्डली द्वारा मांगलिक गान हुआ और तब कविताओं का पाठारम्भ । राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जयन्ती के प्रायः दो सप्ताह पूर्व काशी आए थे, वह एक कविता दे गए। वह पढ़ी गई । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी कबिता-पाठ किया। अब प्रसादजी खड़े हुए। उनकी उस दिन संस्मरण पर्व : १६७