वाली वेशभूषा इस समय भी आँखों में नाच रही है । खस के अतर से मुअत्तर ढाके की बारीक जामदानी वाले अंगरखे के नीचे से झलकती हुई हरी मिर्जई की छटा निराली थी। सिर पर महीन चुनी हुई अदा वाली दोपलिया टोपी और पांव में चूड़ीदार पाजामा था। हाथ में सुन्दर बांस की छड़ी जिसकी मूंठ बारहसिंघे की पी। प्रसादजी की इस प्रिय छड़ी को उनके समी अरि, भक्त आज भी न भूले होंगे। वह उनकी चिरसंगिनी थी। जयन्ती के लिए उन्होंने भी एक सुन्दर कविता लिखी थी। पढ़ी भी उन्होंने बड़े ठाठ से, यद्यपि किसी ऐसे समाज में कविता पढ़ने का उनके लिए यह पहला अवसर था। भारतेन्दुजी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी और अनेक अंशों में वह प्रसादजी के आदर्श व्यक्ति थे। सो इस अवसर की रचना में हार्दिकता का होना स्वाभाविक था, फलतः इस रचना को उनकी उस काल वाली प्रतिनिधि ब्रजभाषा की रचनाओं में रख सकते है। उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं- सज्जन चकोर भये प्रफुल्लित मानि मन में मोद को। सहृदय हृदय शुचि कुमुद विकसे विशद बन्धु विनोद को । छिटकी सुहिन्दी चन्द्रिका आनन्द अतिहिं विधायनी। यह भारतेन्दु भयो उदय धरि कान्ति जो सुखदायिनी ।। (प्रसाद वाङ्मय प्रथम खण्ड पृ० १४१-२०) X X X 'मध्याह्न होते ही सूर्य अस्ताचल का मार्ग ग्रहण करता है'-यह प्रकृति का शाश्वत नियम है। १२-१२-१९११ ई० के दिन सम्राट जार्ज पंचम का दिल्ली दरबार हुआ। उधर दरबार हो रहा था, इधर बनारस में प्रसादजी कह रहे थे-'यह ब्रिटिश साम्राज्य का मध्याह्न है।' वहाँ दिल्ली में क्या हो गया इसका रंचमात्र ज्ञान न उन्हें था न उनके उक्त भविष्यवाणी के सुनने वालों को। दिल्ली दरवार के साथ-साथ एक प्रदर्शनी भी लगी थी जो कुछ दिन चलती रही। प्रसादजी उसे देखने गये । साथ में उनके एक अन्तरंग मित्र थे जिनका साहित्य से कोई लगाव न था। नाम था मोहनलाल रस्तोगी। प्रसादजी की दूकान के पास ही उनकी गोटा टोपी की दूकान थी। मित्रता का कारण था उनका उदात्त स्वभाव और आत्मगौरव, यद्यपि अभिमान उनमे छ नही गया था। उनकी एक आदत पी कि टेट में सदैव पच्चीस गिन्नी रखे रहते थे। प्रायः प्रसादजी की दूकानवाली मण्डली में आ बैठते और बीच बीच में हंसी मजाक हुआ करता । इस दिल्ली प्रवास में एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि किसी दुकानदार ने इन लोगों की सादी वेशभूषा देख कर सोचा कि इन्हें माल क्या दिखाएं-कुछ खरीदेंगे तो है नहीं। मोहनलाल ने अण्टी में से गिन्नियां निकालकर चुपचाप उसके सामने रख दीं, बस वह पानी पानी हो गया। १६८: प्रसाद वाङ्मय
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