मोहनलाल के प्रसंगवश कई और व्यक्ति याद आ गए जो प्रसादजी के बहुत निकटवर्ती थे। यद्यपि प्रसादजी मूत्तिमान साहित्य थे तथापि यह एक अचरज की बात है कि उनके एक ऐसे अनन्य बाल-संघाती थे जिनका साहित्य से कोई सम्बन्ध न था। उनके पुकारने का नाम था गज्जन । वास्तविक नाम था मुंशी गयाप्रसाद । प्रसादजी का और उनका बचपन से साथ था, सहपाठी भी थे। उस समय से उन लोगों में जो स्नेहबन्ध हो गया वह आजन्म बना रहा। गज्जनजी पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी में चले गये-बढ़ते-बढ़ते बनारस जिलाधीश के पेशकार तक हो गए थे। प्रसादजी ने साहित्यिक मार्ग ग्रहण किया। गज्जनजी का उससे कोई सम्बन्ध न था, किन्तु दोनों बालमित्र नित्य मिलते और उनमे ऐसी सख्यपूर्ण बातचीत होती कि कोई कह नही सकता था कि दोनों के मार्ग बिल्कुल विभिन्न दिशाओं में हैं। जब प्रसादजी 'प्रसादजी' हो चुके थे और सन्ध्या के समय उनकी नरियरी टोला वाली दूकान पर साहित्यिक मण्डली जुटती और चर्चा का विषय एक मात्र साहित्यिक ही रहता, तब भी गज्जनजी वहां नियमपूर्वक आते और सबकी बातें सुना करते । प्रसादजी अपने बालसुहृद को हृदय से मानते थे और अक्सर उनकी चर्चा भी मुझसे करते। गज्जननी की सरलता और सौम्यता पर वह मुग्ध थे । ऐसे साधु स्वभाव के साथ-साथ गज्जनजी बड़े हँसोड़ और खिलवाडी थे । मेरे यहाँ एक चौबेजी आया करते थे। थे तो वह माथुर पर निवासी थे आगरे के, हुण्डी-पुर्जे की दलाली से हजार पांच सौ प्रतिमास कमा लेते । अत्यन्त शुद्ध हृदय, भगवद्-भक्त और नीतिज्ञ थे। एक-एक बात लाख-लाख रुपये की होती, खूब हंसते- हंसाते रहते। प्रसादजी को वह 'सुगन्धी' कहा करते, क्योंकि उनके यहां जाते ही सारा घर सुगन्धपूर्ण पाते। प्रसादजी के यहां मांग की अधिकता के कारण सुर्ती के पत्ते और डण्ठल मशीन से पीसे जाते। तब आयल इन्जन या इलेक्ट्रिक इन्जन नहीं चले थे । पत्थर के कोयले का बड़ा भारी स्टीम इन्जन था, उसी से पिसाई होती। एक दिन प्रसादजी चौबेजी को पिसाई दिखा रहे थे। साथ मे गज्जन भी थे। उन्होंने पिसी हुई तम्बाकू के ढेर में पांव से ठोकर मार दी। सुँघनी चौबेजी के नाक में घुस गई और छींकते-छोफते बुरा हाल हो गया, लेकिन वह ऐसे अलमस्त जीव थे कि बुरा मानने के बजाय छींकते जाते और हंसते जाते । प्रसादजी के एक अन्य घनिष्ठ मित्र थे जिनका साहित्य से कोई सम्बन्ध न था। प्रसादजी को उदात्त प्रकृति के लोग बहुत पमन्द थे। इसी कारण उनको अपने इन पड़ोसी से बड़ी घनिष्ठता थी। रनका पुकारने का नाम था बोकी सिंह (सूर्यनारायण सिंह)। वह जमींदार थे। वे दोनों मित्र प्रतिदिन मिला करते और खूब गपशप करते। बोकी सिंह को एक ऐसी बीमारी हो गई थी जिसकी शल्य चिकित्सा आवश्यक थी। एक दिन उन्होंने प्रसादजी से कहा-"भैया मुझे अस्पताल ले चलो 1 संस्मरण पर्व : १६९
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७३
दिखावट