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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७४

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और नश्तर लगवा दो, जो होना है होगा।' प्रसादजी ने उन्हें धीरज बंधाया और अस्पताल ले गए। आपरेशन सफल हुआ, प्रसादजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। कभी- कभी उनके संग बोकी सिंह मेरे यहां भी आते थे। प्रसादजी के भाई साहब के एक दरबारी थे सिंघा। वह ठाकुर थे, अंग्रेजी की कृपा से सिंह से सिंघा बन गए थे। हृदय में मरोर उठाने वाली चीजों के गाने में उन्हें कमाल हासिल था। स्वर ऐसा पल्लेदार था कि होली पर शहनाई के संग गाते तो उनकी आवाज इक्कीस रहती। भाई साहब के गत हो जाने पर प्रसादजी के यहां उनका आना कभी-कभी होता। जब आते तब क्या ही समां बंध जाता। एक बचनू थे । फूहड़ बातो को शाल में लपेट कर कहना उनकी विशेषता थी। प्रतिदिन दूकान पर पहुंचते और बीच-बीच में विदूषक की भूमिका अदा करते रहते । एक बार होली पर चन्द्रग्रहण पड़ा। वह फर्माने लगे-'आज पापी को नरककुण्ड में डाल देना चाहिए। प्रसादजी सन्ध्या समय दूकान जाने के पहले डेढ़-दो घण्टे अपने घर के सामने वाले विस्तृत चबूतरे पर बैठते । एक पत्थर की चौकी उनका आसन थी। इस समय भी एक मण्डली जुटती कभी-कभी भांग-बूटी भी छनती। उस समय नियमपूर्वक एक महाशय आया करते जो बुढ़ापे की देहली तक पहुंच चुके थे परन्तु चलते थे अकड़कर, सिर पर तिरछी टोपी। सब लोग उन्हे छेड़ा करते । उनमें एक सनक थी कि एक छोटे-मोटे राज सरीखी जमींदारी पर जो उनकी सम्पत्ति है किसी ने कब्जा कर लिया है। सभी उन्हें रायसाहब कहते और गम्भीर मुद्रा में पूछते-'कहिए राय साहब, रियासत कब वापस मिलेगी ?'-'बस महीने- दो महीने में। तब देखना मेरी शान ।' अकड़े वक्ष को और अकड़ाकर वह जवाब देते। इसी प्रसंग को लेकर उनसे और मजाक भी किये जाते, पर वह भांप न सकते। पक्के शराबी थे परन्तु कभी बदमस्त न होते। एक वृद्ध परमहंसजी अक्सर आने वालों में थे। सदा ब्रह्मानन्द में लीन रहते जो उनके निरन्तर हंसते रहने से व्यक्त हुआ करता। उनमें कोई इहा न थी, सबसे घुलमिल जाते और अलग के अलग बने रहते। जी चाहता है कि यहां प्रसादजी के दो नौकरों की चर्चा भी कुछ पंक्तियों में कर दूं-पहला, उनका ड्योढ़ीदार था रंजीत सिंह । बहुत मुस्तैद और कर्त्तव्य- परायण । चढ़ी हुई राजपूती दाढ़ी और वैसा ही स्वभाव । प्रसादजी के हुक्म की देर थी, बस रंजीत दिन देखता न रात तत्पर होकर काम सुचारु रूप से सम्पन्न कर देता। दूसरा था, सन्तू नामक प्रसादजी का खिदमतगार कितनी लगन लेकर उनकी सेवा करता, उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता न पड़ती। एक मिनट का भी फर्क पड़े बिना सब सेवाएं ऐसे हो जाती कि आटोमेटिक मशीन क्या करेगी। एक दिन उसे अपने गांव की याद आ गई और ऐसी आ गई कि वह एक क्षण भी न रुका-घर चला गया। प्रसादजी को फिर वैसा सेवक न मिला। १७०: प्रसाद वाङ्मय