१९१२ ई० के अगस्त में एक विचित्र सामूहिक बीमारी बनारस में फैली । इसका देशी नाम 'लंगड़ा बुखार' था और डाक्टरी नाम 'डेंगू बुखार'। मैं सपरिवार इस डेंगू ज्वर से पीड़ित हुआ, और अच्छा होने पर आबहवा बदलने और निर्बलता दूर करने के लिए हम शहर के मकान से बगीचे में चले गये। मन ऐसा रमा कि वहीं रहने लगे। अब प्रसादजी से मिलना इस प्रकार होता कि वह अपने घर से नित्य सन्ध्या को नागरीप्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय में आ जाते और मैं भी बगीचे से वही आ जाता । पुस्तकालयाध्यक्ष स्व० पं० केदारनाथ पाठक हम लोगों के अभिन्न मित्र होने के साथ-साथ हिन्दी जगत के जीवित विश्वकोश भी थे। उदीयमान साहित्यकारों के उत्साहवर्द्धन, मार्गदर्शन में अद्वितीय थे। अत्यन्त सहृदय भी थे। सारा समय उन्हीं की संगति मे बीतता और प्रतिदिन हम लोगों को नई उपलब्धि अवश्य होती। यद्यपि पुस्तकालय बन्द हो जाता सथापि बातचीत का सिलसिला चलता रहता। उन दिनों प्रत्येक हिन्दी मेवी का यही ध्येय था कि जैसे भी हो एक दिन में ही हिन्दी को उछाल कर शिखरामीन कर है। हम लोग सभा के सामने वाली सड़क की पटरी पर खड़े होकर बातों मे खो जाते । हमें देखते ही हमारे कोचवान गाडियों में मोमबत्ती वाले लम्प बाल देते, किन्तु कौन उधर ध्यान देता। कभी-कभी आधा घण्टा बीत जाता, विलग होने का मन ही न होता। एक दिन पाठकजी ने सव्यंग कहा-'अरे, बनियों की बत्ती जल रही है, कुछ इसका तो ख्याल कीजिए।' उत्तर-प्रसादजी और मैने मिलकर-तुरन्त एक दोहे में दिया- बनियों की बत्ती जले, जले तुम्हारी" पाठकजी तुम ही नहीं, हो तुम पूरे भांड़ ।। ऐसे ही पटरी वाले वार्तालाप में मैंने एक दिन पाठकजी से पूछा-'हिन्दी में कोई रबीन्द्र भी है।' उन्होंने तत्काल प्रसादजी की ओर इंगित करते हुए कहा- 'क्यों नहीं, यह खड़े तो हैं सामने ।' प्रसादजी यद्यपि उन दिनों 'प्रसादजी' नहीं हुए थे, नवोदित साहित्यकार थे, तथापि निगाहदार पाठकजी ने उन्हें तभी से पहचान लिया था। उन्हीं दिनों एक औपन्यासिक घटना घटी। नागरीप्रचारिणी सभा का हिन्दी शब्दसागर तैयार हो रहा था। उसके सम्पादक-मण्डल में श्री जगन्मोहन वर्मा भी थे। वह भाषाविज्ञान के अच्छे विद्वान तथा वैदिक, संस्कृत और फारसी भाषाओं के ज्ञाता थे। उनके यहां कहीं से भटकता हुआ एक अपरिचित युवक आया। उन्होंने उसे आश्रय दिया । यद्यपि उसका रंग तो बहुत काला था तथापि नकशा सुन्दर था। लम्बी केशराशि कुछ-कुछ धुंधराली थी। वह प्रतिदिन आर्यभाषा पुस्तकालय में आता और अखबार तथा पुस्तकें पढ़ा करता, कोई उसकी ओर विशेष ध्यान न देता। प्रसादजी तो वहां के नियमित आनेवालों में थे। उन्होंने उसका नाम 'आबनूस का . संस्मरण पर्व : १०१
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