पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८१

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- आशंका उनके चौगिर्द मंडरा रही थी। उसी समय कही से एक मेढ़ा उस कमरे में आ घुसा। उसके दोनों सींग सिन्दूर से रंगे थे और ललाट पर भी सिन्दूर लगा था। उन्हीं के शब्दों में-'उसे देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, वह क्षण भर में लौट गया और तभी घर में से सूचना मिली कि किस्सा तमाम हो गया।' १९१६ ई० के दिसम्बर में कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में होने वाला था। इस अधिवेशन का विशेष महत्व था क्योकि सजा काट कर लौटे लोकमान्य तिलक और सरोजिनी नायड़ विशेष रूप से इसमें योगदान कर रहे थे। लखनऊ जाने के पहले प्रसादजी पर बहुत जोर डाला कि वह भी चले। पहले तो वह निरन्तर नहीं करते रहे । अन्त ने एक दिन कहा कि--'तुम जाओ, मैं भी आऊंगा।' लखनऊ से लौटकर जब उन्हें न आने का उलाहना पिया तब ऐसा रूपक रचा उन्होंने कि मुझे यही प्रतीति हुआ कि वह भी लखनऊ पहुंचे थे और उनके बार-बार पुकारने पर भी मैं उनकी ओर उन्मुख नहीं हुआ। इस कारण मैं बहुत लज्जित और दुखित भी हो जाता । कुछ दिनों बाद उन्होंने इस भ्रम का निवारण कर दिया। लखनऊ मे लौटने पर मैंने उन्हें वे गद्य-गीत दिखाए जिन्हे मसूरी में लिखना आरम्भ किया था और तबसे लगातार लिखता जाता था। उनकी संख्या लगभग अस्सी हो गई थी। प्रसादजी ने उन्हें बहुत पसन्द किया-केवल जवानी ही नहीं। एक दिन आए-सुदामा की तरह कुछ छिपाए हुए। उमे बहुत छीना-झपटी और हां-नही के बाद बड़े हाव-भाव से दिखाया। उन दिनों उनकी ऐसी आदत थी कि अपनी रचनाएँ दिखाने मे वडा तंग करते : और अब तक भी- गई न सिसुता की झलक ।' वह एक साफ सुथरी छोटी-सी कापी थी जिसमे बीस के लगभग उनके गद्य-गीत थे। मैंने कइयों को झाँका सुन्दर थे। एक मे का सन्ध्या वर्णन अभी तक नहीं भूला, किन्तु मैं उन दिनों बावला हो रहा था, अपनी शैली पर इतना ममत्व और आग्रह था कि जरा भी उदार नहीं होना चाहता था। मैंने छुटते ही कहा- 'क्यों गुरु, मुझी पर हाथ फेरना।' वह मेरी संकीर्णता पहचान गए। कई दिन बाद मुनासिब बात कहकर अपनी कापी उठा ले गए, और उन भावो में से कतिपय को छन्दोबद्ध कर डाला। उनके 'झरना' के प्रथम संस्करण का अधिकांश उन्हीं कविताओं का संकलन है। सौभाग्यवश उनके गद्य-गीतो मे से एक उपलब्ध है जिसे उन्होंने अपनी कहानी 'पत्थर की पुकार' मे गुंफित कर दिया था। वह साल बीतते-बीतते प्रसादजी बिल्कुल प्रकृतिस्थ हो गए थे, १९१७ ई० के आरम्भिक दिनों में उनका दूसरा विवाह तय हुआ। फरवरी के उत्तरार्द्ध में विवाह की लग्न निश्चित हुई। कोई विशेष समारोह नही हुआ-फिर भी सभी इष्ट-मित्र एकत्र हो गए थे। वर-रूप में प्रसादजी ने सिर पर जरीदार बनारसी सेल्हे का साफा बांधा था और गले में एक सुन्दर मोतियों की माला थी। शेष वस्त्र मामूली शेरवानी संस्मरण पर्व : १७७