। पाजामा पा । विवाह आनन्दमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। उन दिनों मैथिलीशरण और प्रसादजी बहुत निकट आ गए थे। उन लोगों ने निश्चय किया कि सम्मिलित होकर रामचरित पर एक पद्यमय नाटक लिखें, किन्तु कथानक के विषय में कुछ मौलिक मतभेद होने के कारण वह काम न हो सका। १९१८ की कोई विशेष घटना याद नहीं आती सिवा इसके कि शिवरात्रि को उनके पैतृक विशाल शिवालय में जो घर के सामने ही है विशेष भजन-पूजन और जलसा होता था। प्रसादजी २४ घण्टों का निराहार व्रत करते । रेशमी पीताम्बर पहने, त्रिपुण्ड लगाए और कण्ठ में ११ बड़े-बड़े गौरीशंकर रुद्राक्षों की माला पहने प्रसादजी की वह छटा दर्शनीय होती। शिवजी का निरन्तर रुद्राभिषेक होता रहता साथ ही मन्दिर के जगमोहन में वेश्या का नाच-गाना भी। इष्ट-मित्रों की और मुहल्ले के संभ्रान्त लोगों की अच्छी भीड़ जुटती, कुछ तो आसपास की जनपदों से भी आते। उनमें मोहनसराय के सुकवि मुकुन्दीलाल और मिर्जापुर जिले के कवि शिवदासजी का नाम उल्लेखनीय है । सभी आगतों की पहली खातिर भांग से होती। ऐसी स्वादिष्ट भांग बनती जिसका नाम नहीं। उसमें केशर; कस्तूरी, इलाइची, गुलाबजल और बादाम के साथ-साथ मलाई के छोटे-छोटे टुकड़े भी होते । लोग नशे का डर भूलकर कुल्हड़ पर कुल्हड़ जमाते थे। जिस शिवरात्रि की चर्चा कर रहा हूँ उसमें नर्तकी ने एक गीत गाया, जिसकी टेक थी-'बेकार आँखें हो गई।' संयोगवश आगतों में उसी मुहल्ले के एक समृद्ध जमींदार थे जो काने थे। गजल सुनकर सब लोग उनकी ओर देखकर ठठाकर हंसने लगे, किन्तु वह भी ऐसे रसिया थे कि झूमते हुए स्वयं भी कहकहा लगाया -यहां तक कि अन्य हंसने वाले फीके पड़ गए । उन दिनों में एक बड़े मुकदमे में व्यस्त था जिसके कारण अधिकांश समय इलाहाबाद में ही वीता और साल बीतते-बीतते एक लम्बे प्रवास का भी आरम्भ हुआ, अतएव बनारस से बहुत कम सम्पर्क रहा। जब नवम्बर के पहले सप्ताह में काशी वापस लौटा तो इस बीच १९१८-१९ ई० में प्रसादजी की दूसरी पत्नी का प्रसूति रोग में देहान्त हो चुका था और तीसरा विवाह भी हो गया था। अत लौटने पर उन्हें बिल्कुल प्रसन्न चित्त पाया। अपने लम्बे प्रवास में मंसूरी में एक योजना तैयार की जो चिर-अभिलषित थी। वह भारतीय कला और पुरातत्व का एक विशाल संग्रहालय बनाने की रूपरेखा थी। बनारस लौटने पर जब प्रसादजी से चर्चा हुई तब उन्होंने योजना का स्वागत ही नहीं किया, कमर कस कर मेरे साथ काम करने को तैयार भी हो गए अन्ततोगत्वा पहली जनवरी १९२० को भारत कला परिषद की स्थापना हुई जो आज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संग्रहालय भारत कला भवन नाम से विख्यात है। प्रसादजी पहले दिन से परिषद के साथ थे। उन्हें ऐसी लगन हो गई कि दुकान जाने के पहले नित्य सन्ध्या को परिषद में-जो गोदौलिया , १७८: प्रसाद वाङ्मय
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