.... जयशंकर प्रसाद आइये । नखरे से आइये । नाज से आइये । अन्दाज से आइये । साज से आइये । आइये"आइये दादाजी के आग्रह से आइये । केशवजी के आग्रह से आइये । देसाईजी के आग्रह से आइये। सेठजी के आग्रह से आइये । सन्त बाब के आग्रह से आइये और इस जन के आग्रह से आइये। वही कृ० काशी ९-१०-२१ प्रियेवरेषु, एक साथ ही बहुत लोगों के निमन्त्रण और आवाहन ? मैं तो घबरा गया हूँ। फिर आना भी कई प्रकार से, यह और भी समस्या ? बिचार उत्पन्न हो गया है, सम्भवतः न आ सकूँगा। अच्छा, कोई चिन्ता नही । रायकृष्णदास साहिब भवदीय मंसूरी। १९२२ ई० के लगभग में हस्तलिखित पोथियां संचित कर रहा था। एक विशाल पोथी-भंडार का पता चला जिसे हरप्रसादजी नामक एक ब्राह्मण देवता ने संग्रहीत किया था। वे प्रसादजी के और मेरे भी सुपरिचित थे। प्रसादजी, पं० केशवप्रसाद मिश्र और मेरी सलाह हुई कि वह संग्रह देखा जाय । ठीक दोपहरी में त्रिमूर्ति हरप्रसादजी के घर पहुंची। उन्हे दोहरी प्रसन्नता हुई। एक तो प्रसादजी और मुझसे वर्षों बाद मिलकर, दूसरे इस आशा से कि उनके ढेर के ढेर पुस्तकों के रुपये खड़े हो जायेंगे और उनके अन्तिम दिन बिना आर्थिक कठिनाई के बीतेंगे। उनके घरवालों ने पुस्तकों के बण्डल हमलोगों के सामने धर दिए। आचार्य केशवजी, प्रसादजी और मैं उन्हे खोल-खोलकर देखने लगे। उनमें तन्त्र, मन्त्र, अनुष्ठान, स्तोत्र, झाड़-फूंक और जादू टोने के सिवा कोई काम की चीज देखने में न आई, एकाध बण्डल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ मिले । हरप्रसादजी को निराश करना उचित न था अतएव हमलोग विचार करके उत्तर देने की बात कहकर बिदा हुए। बाहर आकर प्रसादजी ने गम्भीर वाणी में कहा कि ये पुस्तकें हमारे अध:पतन के उस काल की प्रतीक हैं, जब राष्ट्र की यह मनोवृत्ति थी कि कुछ करना न पड़े और सब कुछ हो जाय। उनके इस वाक्य में समाज की कर्मठता की आवश्यकता की पूरी अभिव्यक्ति है और इसका उनके तथाकथित नियतिवाद से सर्वथा असामंजस्य है। प्रसादजी की बहुत इच्छा थी कि पारम्परिक व्यवसाय के अतिरिक्त कोई नया व्यवसाय भी करें। संयोगवश १९२२ में उन्हें एक ऐसे व्यक्ति मिल गये जिन्हें उन्होंने नये व्यवसाय के लिए उपयुक्त समझा-किन्तु उनका ऐसा समझना शिक रूप से ही ठीक था-ये थे गुजरात के मगनभाई देसाई। उन दिनों हिन्दू विश्व- १८० : प्रसाद वाङ्मय
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