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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५१३

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वावजूद प्रसादजी उनकी कोठी पर ठहरने के लिए नहीं गये और अपने पुराने मित्र 'सरोज' जी के यहाँ ठहरने की इच्छा व्यक्त की। 'सरोज' जी के लिए यह प्रस्ताव अप्रत्याशित किंतु आह्लादकर था। उनका मकान बहुत छोटा था तथा मौलवीगंज मोहल्ले में था, जो आज भी लखनऊ का एक अविकसित क्षेत्र है। प्रसादजी के साथ पांछ-छः लोग और थे, जिनमें से केवल दो के नामों का मुझे स्मरण है-रत्नशंकरजी और रत्नाकर रसिक मण्डल के पं० रामानन्द मिश्र । मिथ बंधुओं की कार छोड़कर प्रसादजी, तीन-चार तांगों में अपना सामान लदवा कर सरोज जी के निवास पर पहुँच गये और जहाँ तक मुझे याद है, लगभग एक सप्ताह वहीं रहे। प्रसादजी के आगमन की सूचना पाकर निरालाजी के साथ मैं, उनसे मिलने सरोज जी के आवास पर गया। मकान की छोटी-सी बैठक में प्रसादजी का सामान ठसाठस भरा हुआ था। जाड़े के दिन थे। बाहर के चबूतरे पर एक बड़ी-सी दरी बिछी थी, जिस पर बैठकर प्रमादजी मालिश करवा रहे थे। काशी से पधारे अन्य आगन्तुक भी उनके साथ ही बैठे थे। मिलते ही बोले ---मैं आपको सूचना नहीं दे पाया। अन्त तक अनिश्चय की स्थिति में था। अंततः तार द्वारा मैंने मिश्र-बंधुओं को सूचित किया। उन्ही के द्वारा सरोजजी को भा जानकारी हो गयी। जितने दिन प्रसादजी लखनऊ रहे, वहाँ के साहित्यिक क्षेत्र का वातावरण बड़ा ही उल्लासमय रहा । प्रतिदिन गीता प्रेस के प्रतिष्ठान में, जहाँ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का आधिपत्य था, बैठक जमा करती थी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, पं० रूपनारायण पाण्डेय, निरालाजी, प्रसादजी, सरोजजी तथा हम मव कनिष्ठवय साहित्यकार नित्य प्रति बैठक में उपस्थित हो जाया करते थे। साहित्यिक वार्तालाप और हास्यविनोद का गहरा रंग जमता था। एक दिन उस गोष्ठी में ओरछा नरेश वीर सिंह जूदेव भी आये थे। उन दिनों में अधिकांशतः प्रसादजी के ही सान्निध्य में रहा । एक दिन प्रमादजी, मैथिलीशरणजी, सियारामशरणजी तथा निरालाजी के साथ पं० रूपनारायण पाण्डेयजी के घर रानी कटरा गये। मैं भी साथ था। वहाँ लगभग एक घंटे बैठक जमी। इस प्रकार उन दिग्गज साहित्यकारों के सान्निध्य में रहकर मुझे उनके अन्तर में झांकने का सुअवसर मिला तथा मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि जो मानव के रूप में महान होता है, वही महान साहित्यकार भी हो सकता है। लखनऊ में राजकीय आवास की सुविधाओं को छोड़कर प्रसादजी ने अपने पुराने मित्र के कष्ट कर, अकिंचन सुविधाहीन घर में रहना पसंद किय, -यह उनकी उस आंतर-महिमा का परिचायक है, जिससे प्रेरित और अनुप्राणित हो श्रेष्ठ साहित्य जन्म लिया करता है। मंस्मरण पर्व : २०९