पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सन् १९३७ ई० । काशी विश्वविद्यालय के नये सत्रारम्भ के साथ ही मैं बीमार पड़ गवा । मलेरिया और रक्तातिसार से पीड़ित हो मैं घर लौट गया। फिर दीवाली से दो सप्ताह पूर्व में काशी आया। जानकी बल्लभ शास्त्रीजी अपने छात्रावास में थे। उनसे मिलकर ज्ञात हुआ कि प्रसादजी गम्भीर रूप से बीमार हैं। लखनऊ से ही अवस्थ होकर लौटे थे और वह अस्वस्थता अब उग्रतर हो चली थी। मैं जानकी बल्लभ शास्त्री के साथ प्रसादजी के दर्शनार्था उनके निवास पर पहुंचा। वे ऊपर की मंजिल पर थे। वहां से उनके खांसने की आवाज हम दोनों तक पहुंच रही थी। हम दोनों उनकी कोठी के बाहर पड़े एक तख्त पर बैठ गये। एक परिचारक आया। उससे हमने प्रसादजी से मिलने की इच्छा व्यक्त की। परिचारक ने बताया कि डाक्टर ने प्रसादजी से मिलने और बात करने से मनाकर रखा है। डाक्टर की हिदायत स्वीकार करते हुए हमने परिचारक से आग्रह किया कि वह हम दोनों का नाम बताकर प्रसादजी को हमारा प्रणाम निवेदित कर दे। इस पर चरिचारक ने जाकर प्रसादजी को हमारा प्रणाम निवेदित किया। उन्होंने हमें ऊपर ही बुलवा लिया। उन्हें देखकर मैं हतप्रभ हो गया। वे अस्थि-पंजर मात्र रह गये थे। हमारे मना करने के बावजूद वे तकिये के सहारे उठकर बैठ गये । हमारे लिए वह उनका अन्तिम दर्शन था, किन्तु वही उनकी महीयसी अपराजेय प्रतिभा से हमारा साक्षात्कार भी था । हम उन्हें बैठने अथबा बात करने से मना करते तो वे हंसकर टाल जाते थे। बीमारी की चर्चा चलने ही नहीं देते थे। हिन्दी-हिन्दुस्तानी विवाद पर उन्होंने गम्भीर चिन्ता व्यक्त की और कहा कि यदि संगठित होकर इस रोग का निदान न किया गया, तो स्वाधीनता प्राप्ति के वावजूद राष्ट्रभाषा का मार्ग निरापद नहीं रह पायेगा । हम उनके विचार सुनते रहे । बीमारी के बारे में पूछा तो बोलेहोम्योपैथिक उपचार चल रहा है, ठीक हो जाऊंगा। भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करते हुए बोले-अभी बहुत कुछ लिखना है। इन्द्र पर एक नाटक लिखना चाहता हूँ। उस नाटक की योजना के विषय में धीमे स्वर में बताते रहे। इन्द्र पर उनका एक लेख नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, उसका एक-एक प्रिंट हम दोनों को दिया। फिर 'इरावती' उपन्यास के बारे में बताने लगे, जिसकी रचना उन्होंने आरंभ कर दी थी। पूछने पर 'कामायनी' के दार्शनिक आधार के विषय में भी दो-चार बातें बतायीं। फिर मैं साहस करके पूछ बैठा--आप इतने दुर्बल हो गये हैं, आपको रोग को बिलकुल चिन्ता नहीं है ?" यह सुनकर प्रसादजी हंस पड़ें। उनकी वह हंसी कालजयी हंसी थी-वह उस मृत्युञ्जय महाकवि की हंसी थी जिसने जीवन-काल में ही मृत्यु के रहस्य का साक्षात्कार किया था तथा मन-प्राण से उसे जीत लिया था। हमने साश्रु-नयन उनके श्री चरणों में प्रणाम-निवेदन किया और २१० : प्रसाद वाङ्मय