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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५१६

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में लगाया। और शेष इत्र अपने जूतों में डाल दिया और कुछ बोले बैसवाड़ी मेंनई धारा के आलोचकों के प्रति विशिष्ट विशेषणों के उपोद्धात सहित !' ___ इस घटना की चर्चा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयीजी ने मुझसे की थी, पोस्टकार्ड में निबद्ध वृत्त अक्षरशः सत्य है। यह घटना सन् १९२८-२९ की है। उन दिनों आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम० ए० के अन्तिम वर्ष के छात्र थे। उन्होंने स्वयं लिखा है, "उन दिनों मै काशी विश्वविद्यालय की एम० ए० कक्षा का विद्यार्थी था। निरालाजी कभी प्रशादजी के घर रहते और कभी हमारे 'आर्यभवन लाज' में रहा करते थे। समवयस्क या अपने से छोटी उम्र के लोगों के साथ रहने गे उनकी अधिक रुचि थी। अपने से बड़ों के साथ उन्हें अंशतः संकोच होता था। प्रसादजी से उनका वार्तालाप मीमित होता था। दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे परन्तु निरालाजी आयु में छोटे होने के कारण प्रसादजी को वैयक्तिक सम्मान अधिक देते थे।' प्रसादजी के प्रति निरालाजी के हृदय में कितना आदर और सम्मान था, मैं अपने को इसका सबसे बड़ा साक्षी मानता हूँ-अनेक वर्षव्यापी उनके साहचर्य के आधार पर। एक बार मैंने निरालाजी से पूछा था, आपको 'आंसू' का कौन सा अंश सबसे प्रिय है ? उन्होंने तुरन्त निम्नलिखित पंक्तियाँ सुनाई रजनी की रोई आँखें आलोक बिन्दु टपकातीं तम की काली छलनायें उनको चुप चुप पी जाती सुख अपमानित करता-सा जब व्यंग-हंसी हंसता है चुपके से तव मत रो तू यह कमी परवशता है अपने आंसू की अञ्जलि आँखों में भर क्यों पीता नक्षत्र पतन के क्षण में उज्ज्वल होकर है जीता रत्नशंकरजी के द्वारा पोस्टकार्ड में उल्लिखित घटना के सब सूत्रों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने के लिए आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के संस्मरणों का वह अंश में यहां दे रहा हूँ। जिसका उक्त कविता पाठ से सीधा संबंध है। कवितापाठ के लिए जाते समय निरालाजी सेंट या इत्र में अपने केशों और वस्त्रों को नहलाया करते थे, २१२ : प्रसाद वाङ्मय