पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५१७

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यह मैंने लखनऊ में भी कई बार देखा है। पं० नन्ददुलारे वाजपेयी के साथ निरालाजी प्रसादजी के आवास से इत्र-स्नान कर कविता पाठ के लिए गये थे, यह बात मुझे वाजपेयीजी ने स्वयं बतलायी थी-"."एक दिन मेरे मित्रों ने आकर प्रस्ताव किया कि विश्वविद्यालय में निरालाजी का भाषण और काव्य पाठ कराया जाय । मैं उन दिनों एम० ए० की अंतिम वर्ष की कक्षा में था और हिन्दी अध्यापकों का स्नेहभाजन बन चुका था। उन दिनों विभाग की हिन्दी समिति का मैं कर्ता-धर्ता भी था। मैंने विभागाध्यक्ष डॉ० श्यामसुन्दरदास से जब इस विषय का प्रस्ताव किया, तब उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और श्री हरिऔधजी से मिलने और राजी करने का संकेत किया। शुक्लजी ने नाही तो नहीं की पर किसी अन्य कार्य में लगे रहने का उल्लेख किया। उपाध्यायजी राजी हो गये और हम लोगों की मभा उन्हीं की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुई। प्रसादजी तथा नगर के अन्य माहित्यिक भी आये हुए थे। निरालाजी आरंभ में आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम बताते रहे। पूर्ववर्ती कवियों की प्रशंसा भी की, परन्तु वे ज्यों ही नये छायावादी काव्य की चर्चा करने लगे, सहसा उत्तेजित हो गये और बोले 'हमारी इम कविता को पुराने साहित्यिक और समीक्षक उसी प्रकार नहीं समझ सकते, जिस प्रकार कोई मिडिल कक्षा का विद्यार्थी एम० ए० के पाठ्यक्रम को नही समझ सकता।' शायद निरालाजी अपनी कविता के विरुद्ध उठाये गये उन दिनों के साहित्यिक आन्दोलन से विक्षुब्ध थे, अन्यथा उनका-सा सहृदय और शीलवान व्यक्ति ऐसे वाक्य का प्रयोग नही कर सकता था। पर जो कुछ होना था, हो चुका था। सभा में एक विचित्र दृश्य उपस्थित हो गया। हरिऔधजी जो मुझ पर अपार स्नेह करते थे, सभा छोड़कर चले गये । शुक्लजी को सूचना मिली तो वे मुझसे खिन्न और रुष्ट हो गये। बाबू साहब (डॉ० श्यामसुन्दर दास) इस विषय में अधिक तटस्थ थे, उन्होने पूरा वृत्तांत सुनने के बाद एक मद मुस्कान से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की । उस दिन के भाषण के बाद काव्यपाठ भी हुआ। नये साहित्यिक, विद्यार्थी सैकड़ों की संख्या में निराला का कविता-पाठ सुनकर आह्लादित और विमुग्ध हुए।" ('कवि निराला' पृष्ठ -५-६) रत्नशंकरजी के पोस्टकार्ड में उल्लिखित घटना हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरे छात्र होने के पहले की है। उस समय पं० नंददुलारे वाजपेयी के अतिरिक्त डॉ० रामअवध द्विवेदी, बिहार के सुप्रसिद्ध राजनेता और महान् हिन्दी सेवी श्री लक्ष्मीनारायण सिंह 'सुधांशु', पं० सोहनलाल द्विवेदी आदि हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के छात्र थे। . ____ अन्त में यह स्मरण करा दूं कि रत्नशंकरजी के पत्र में आलोचकों को लक्ष्य कर जतों पर मुश्क अम्बर की शीशी उड़ेलने का जिक्र है। इसके पहले भी वे संपादकों संस्मरण पर्व : २१३