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प्रसादजी और स्वाधीनता संग्राम -डा० रघुनाथ सिंह वे जितने सुंदर थे-उतनी ही उनकी वाणी मधुर थी। वे जितने सरल थे, उतना ही सरल उनका स्वभाव था --वे गौरवपूर्ण थे। मृदुभाषी थे। वे अपने विचारों के दृढ़ थे। वे अडिग रखने के लिए प्रसिद्ध थे। वे न तो सरकार को प्रसन्न करने के लिए लिखते और न जनता के मनोरंजन के लिए-उनका लेखन स्वान्तः सुखाय होता था। इसलिए उनकी लेखनी में ओज होता था-और होती थी दृढ़ता । मेरा उनके कुटुम्ब से बहुत पुराना संबंध है। हमारे बड़े मामा स्वर्गीय बैजनाथ सिंह जी भी कवि थे। लेकिन उन्होंने कभी न अपनी कविता प्रकाशित करायी और न प्रचार के फेर में पड़े। वे दोनों व्यक्ति जब मिलते थे और बैठते थे तो अनायास कवि हृदय खुल जाता था। जयशंकर प्रसादजी से जो लोग मिलना चाहते थे, उनके लिए किसी प्रकार का बंधन नहीं था। वे खलकर अपने साथियों से तथा मिलने वालों से बातें करते थे। वे बातों और विचारों को छिपाने की कोशिश नहीं करते थे। उनके यहाँ मेरा भी आना जाना आठ वर्ष की अवस्था से था। मेरी ससुराल उनके घर से कुछ ही कदमों पर थी। मेरे चचिया ससुर श्री लक्ष्मीनारायण सिंहजी 'ईश' अपने समय के अच्छे कवि थे, उनका मकान भी प्रसादजी के मकान से सिर्फ सो कदम दूर पड़ता था। इस प्रकार जयशंकर प्रसादजी के यहाँ सायंकालीन गोष्ठी प्रायः हुआ करती थी। यह गोष्ठी स्थानीय चौक थाने के पीछे उनकी पुश्तैनी दुकान जो 'सुँघनी साहु' के नाम से प्रसिद्ध है उसके सामने चबूतरे पर भी होती थी। प्रसादजी बड़े सामाजिक थे वे अपने महाल के लोगों का बहुत ख्याल रखते थे गरीबों के विवाह शादी में आर्थिक सहायता चुपचाप करते थे। मेरे विवाह का जव प्रश्न उपस्थित हुआ तब प्रसादजी ने खुलकर कह दिया कि उनका विवाह श्री जयकृष्ण सिंह की कन्या के साथ होगा। उन्होंने एक दिन हंसकर मेरे ससुर से कहा आपको विवाह की चिन्ता नहीं करनी है। हमारे ससुर ने यह नहीं पूछा कि कहाँ ठीक किया है, केवल मुस्करा कर रह गए.। वे दिन बड़े अच्छे थे विवाह शादी आजकल की तरह व्यापार नहीं हो गया था। ____ जयशंकर प्रसादजी गांधीजी के प्रशंसक थे। तब वे गांधीवाद पर किसी प्रकार समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे। यद्यपि वे जेल कितने ही कारणों से नहीं संस्मरण पर्व : २१५