पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२०

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जा सके किन्तु उनका मन सर्वदा उनकी प्रसंशा करता था। देश के लिए वे त्याग करते और कष्ट उठाते थे। उन दिनों काशी में स्वदेशी वस्त्र प्रदर्शनी प्रायः हर साल हुआ करती थी। जिन दिनों का मैं जिक्र कर रहा हूँ उन दिनों बनारस म्युनिस्पिलटी सरकार के हाथों में आ गई थी। लिंच साहब प्रशासक थे पर उनका साहस नहीं था कि प्रदर्शनी रोक दें। प्रदर्शनी टाउनहाल के मैदान में होती थी। झंडा फहराने के प्रश्न पर विवाद खड़ा हो गया था। सरकारी तन्त्र इस बात पर अड़ा था कि किसी प्रकार राष्ट्रीय तिरंगा झंडा प्रदर्शनी में न फहराया जाय। उन दिनों काशी में कांग्रेस में दो दल थे। एक दल श्री गोविन्द मालवीय और हम लोगों का था। और दूसरा दल जो लोग हम लोगों के विचारों से सहमत नहीं थे उन लोगों का था। हम लोग पूरे गांधीवादी थे। काशी के जयशंकर प्रसाद जैसे विद्वान हम लोगों के दल में थे। प्रश्न उपस्थित हुआ कि राष्ट्रीय झंडा फहराने पर सरकार प्रतिबन्ध लगा देगी तो उस स्थिति में क्या करना होगा, जयशंकर प्रसादजी कमेटी के मदस्य नहीं थे। किन्तु हम लोग सदा आमंत्रित करते थे और सैद्धान्तिक प्रश्नों पर उनसे मलाह लिया करते थे। जब राष्ट्रीय झंडा फहराने का प्रश्न उपस्थित हुआ तब जयशंकर प्रसादजी ने बड़े ही जोरदार शब्दों में झंडा फहराने का समर्थन किया और यहां तक कह दिया कि जेल जाना होगा तो वे सबसे आगे रहेंगे। कहना नहीं होगा कि काशी की जनता हम लोगों के साथ थी। श्री गोविन्द मालवीय पर जिम्मेदारी सौंपी गई, वे जैसा निश्चय करेंगे हम लोग वहीं करेंगे। प्रसादजी के परामर्श-अनुसार गोविन्द मालवीय ने तत्कालीन काशिराज श्री आदित्य नारायण सिंहजी से सम्पर्क स्थापित कर उन्हें टाउनहाल में आने के लिए तैयार कर लिया। फल यह हुआ कि काशीराज व गोविन्द मालवीय दोनों महानुभाव एक साथ टाउनहाल में आये और गोविन्द मालवीय ने चुपचाप झंडा काशिराज की उपस्थिति में फहरा दिया। काशिराज से गोविन्द मालवीय के सहयोग के कारण सरकार तथा सरकार समर्थक व्यक्ति उनके सामने नहीं आये। पुलिस हट गई । जयशंकर प्रसादजी पूर्णतः निर्भीक व्यक्ति थे। उन्हें किसी प्रकार के जोर दबाव की चिन्ता नहीं थी। तथापि, युक्ति से काम लेने का कौशल भी उनमें अपूर्व रहा। उनके ये विचार उनके अन्त समय तक कायम थे। जयशंकर प्रसादजी के संबंध में यह कहना ही पड़ेगा कि वे निर्भीक और अपने विचार पर अडिग खड़े रहने वालों में एक ही थे। २१६ : प्रसाद वाङ्मय