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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२१

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लोक मनीषी-श्री जयशंकर प्रसाद' -डा० जयशंकर द्विवेदी लेखक को ८ वर्ष की बाल्यावस्था मे ही प्रसादजी के मान्निध्य का सुअवसर प्राप्त रहा। मेरे पिता पं० जटाशंकर द्विवेदी प्रसादजी के एक अभिन्न अंग थे। प्रसादजी का संगीत प्रेम इतने लालसा-युक्त उत्कृष्ट कोटि का था कि वे पिताजी को सदैव अपने सहवास मे ही चाहते थे। कोटा, बूंदी, अलवर के नरेशों ने पं० जटाशंकरजी से कतिपय बार अपना सम्पर्क कर लिया था। उदयपुर के सवाई महाराज सुयशलोक सिंह जू के संगीतज्ञों के बीच बैठ उन्होने मांड राग जो राजस्थान का प्रधान गीति-राग है, सुनाकर उन्हें मुग्ध कर चुके थे। मेरे चचेरे भाई रायबहादुर पं० कमलाकर द्विवेदी उन दिनों महाराज उदयपुर के प्रधान सचिव पद पर भारत सरकार द्वारा नियुक्त थे। ___किन्तु, इन सब प्रसिद्धियों के कायल प्रगादजी नही थे। पिताजी नई धुनें, लय और तानों व मूर्छनाओं की रचना करते । प्रसादजी के नाटकों में प्रयुक्त उनकी कविताओं की स्वर-लिपि रचना करते। प्रसादजी का सम्पर्क रायकृष्णदासजी मे घनिष्ठ था। रायकृष्णदासजी के यहाँ एक मुनीमजी संगीतज्ञ बराबर रहते थे। प्रसादजी के स्कन्दगुप्त और चन्द्रगुप्त नाटकों की कविताओं की स्वर-लिपियों का मंशोधन रायमाहब और प्रसादजी के सन्निधान में पिताजी किया करते थे। स्कन्दगुप्त की प्रसिद्ध रचना 'हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार, उपा ने हंस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार' की भूपाली राग में पिताजी ने प्रस्तुति की। भूपाली पूर्वाग प्रधान राग है। अपने गाम्भीर्य से यह मंच के सामने बैठी परिषद को मोहित करने वाली चीज है। पिताजी को कजली-बनारसी बड़ी प्रिय थी। अतः कई रचनाओं को कजली की धुन में ही रखा गया है। चन्द्रगुप्त मे 'सुधा सीकर से नहला दो' को कजली की ही धुन में पिताजी ने रखा है। कजली की धुन के वे इतने सिद्ध गायक थे कि उनके कजली गायन के दिनो में प्रसादजी के ऊंचे चबूतरे पर भीड एकत्र हो जाती थी। एक घटना का उल्लेख यहाँ कजली के सम्बन्ध में रोचक होगा -- सिगरा चौमुहानी पर रथयात्रा का मेला गता है। वहीं भरो नाम के बड़े प्रसिद्ध तत्कालीन कजली गाने वाले माने जाते थे। उन्हें लोग भंगी कहते थे। पर बात ऐसी नहीं थी। वे वास्तव में भैरोनाथ मन्दिर के पोषित कुत्तों को खिलाया करते थे। संस्मरण पर्व : २१७