पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२२

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भैरोनाथी न प्रसिद्धि हुई, प्रसिद्धि हुई 'वे भंगी है'। भैरोनाथजी की कजली को भीड़ चौराहे पर सुनने में तल्लीन थी। किसी भी प्रकार से केन्द्र पर पहुंचकर किसी और को सुअवसर नहीं प्राप्त हो सकता था। ऐसे ही समय में प्रसादजी के अग्रज साहु शंभुरत्न जिन्हें लोग संघनी साहु भी कहते थे पिताजी को अपनी टमटम पर बैठाये हुए पहुंचे । पिताजी से उन्होंने भैरव के जवाब में कजली सुनाने की इच्छा प्रकट की। किन्तु प्रश्न था-केन्द्रस्थल तक भीड़ इसनी संकीर्ण दीवार सी बनी खड़ी थी कि वहां तक पहुंचना मुश्किल था। टमटम'को छोड़कर पिताजी उतर पड़े। किसी प्रकार केन्द्र में पहुंच नई धुनकी कजली शुरू कर दी। जनसमूह में सुंघनी साहु के साथ पिताजी की जय-जयकार हुई। साहुजी जब गोबरधनसराय लौटे तो पिताजी को एक कीमती दुशाला ओढ़ाकर खजुरी के लिए अपनी टमटम से प्रस्थान कराया। कम लोग जानते है कि कंकाल के प्रकाशन के बाद लोक कथाकार प्रेमचन्द' ने प्रसादजी को 'लोक मनीषी कवि प्रसाद' की उपाधि दी थी। । __ अपनी अवढरदानी वंशपरम्परा के अनुरूप ही प्रसादजी का भी स्वभाव था। मेरी बुआ के विवाह के अवसर पर दुलहा (वर) जब खिचड़ी पर बैठा तब उसने घोड़े की मांग की-अब तत्काल घोड़ा कहाँ से लाकर दिया जाय । पिताजी खिन्न होकर गोवरधनसराय चले गये बैठकखाने में लेटे रहे कुछ ही देर में प्रसादजी ऊपर से आए और उन्हें देखते ही विस्मय से पूछा--'का हो तोहरे इहाँ खिचड़ी होत होई और तूं इहाँ पसरल हउअs' ! पिताजी ने खिन्न होकर कहा 'दुलहवा घोड़ा मांगत हो अउर कौनो चीज मांगत त वजार से ले के दे जाय अब घोड़ा का से आई' । प्रसादजी ने छूटते ही कहा 'चल जा अस्तबल में से मुश्की घोड़ा ले जा पूरा-साज कसवाय के अउर देखऽ संभार के ओपर बैठे बड़ा पाजी हो एक दाई बरना के पुल पर टमटम उलट देहले रहल हाथै भर बचली नाही बरना में चल जाइत जा जल्दी जा'। जब हमारे पिताजी को मुश्की घोड़े पर सवार आते लोगों ने देखा-आश्चर्य चकित रह गए। अपने समधी से परिहास करते पिताजी ने कहा 'अश्वमेध की पूर्णता कैसे होती है जानते हैं ?' वे झेंप गए किन्तु कह बैठे--'वह तो आप पूरी करके ला रहे हैं। हमारे सम्पूर्ण खजुरी के दुबे परिवार में -जो सैकड़ों व्यक्तियों का है-कोई शादी ब्याह हो सुंघनी साहु से सुर्ती तम्बाकू बराबर प्राप्त रहा है। इस विषय के महामहोपाध्याय सुधाकरजी के पुर्जे अभी भी प्रसादजी के कागजों में मिलेंगे। ___ आज अपनी शारीरिक अशक्तता में इतना ही लिख पा रहा हूं-इसका खेद है। विश्वविद्यालय से लौटते गोवरधनसराय रुकने और कुछ खाकर ही जाने का उनका आदेश भला मैं कैसे टालता वे मेरे पितृ स्थानीय जो रहे। अनेक स्मृतियां आती जाती हैं किस-किस का मनुहार करूं । २१८:प्रसाद वाङ्मय