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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२७

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'अभी दूसरा नाई आ रहा है,. क्या तुम उसे भी मारोगे ?' उत्तर मिला-'नहीं।' क्षौर कर्म सम्पन्न हुआ। प्रसादजी ने प्रायः छ मास उन्हें अपने पास रखा और चिकित्सा होती रही। नरोत्तमदासजी पूर्ण स्वस्थ होकर कलकत्ता वापस आ गये। ___ मधुर चांदनी रातों की उज्ज्वल गाथा वाले श्री जयशंकर प्रसाद को अन्धेरे पाख का चाँचर बाँचने वाला समझने वालों की समझ पर तरस आती है। आज, उस गाथा को उनकी एकमात्र प्रणय-कथा को जिस पर उनके मन्द स्मिति की मुहर लगी है और जो कवि जीवन की पावन ऋचा है-वणित कर देना मेरा कर्तव्य है। परिवार के अन्तरंग वार्ताओं को मैंने कभी गम्भीरता से नहीं लिया किन्तु १९१४ में प्रतिसंस्कृत-'प्रेमपथिक' का इस वार्ता के सन्दर्भ में जब मावधानी से अध्ययन करने लगा तब कुछ तारतम्य का आभास मिला : और एक बार मैंने प्रसादजी से कहा'भइया, मैं प्रेमपथिक का रहस्य जानना चाहता हूँ। उसे पढ़कर मुझे शंका होती है।' प्रसादजी ने उत्तर दिया- 'शंका का उदय तो मनुष्य के मन में होता ही है, ऐसा होना स्वाभाविक भी ही है।' मैंने कहा- 'भइया, फिर शंका का समाधान भी तो होना चाहिए।' उन्होंने कहा- 'कुछ ऐसी शंकायें भी होती है जिनका समाधान किया नही जाता, अपने आप होता है। प्रेमपथिक सम्बन्धी शंका का समाधान होगा, जब तुम उसे पढ़ोगे । उसका पढ़ना ही उसका समाधान है।' ____मैंने कई प्रकार से घुमाफिरा कर प्रसादजी के मुंह से प्रेमपथिक के रचना-रहस्य को सुनने का प्रयास किया किन्तु उनसे कुछ भी जानने में असमर्थ रहा। उत्तर में उन्होंने कहा--'तुम बड़े जिद्दी हो।' मैंने कहा-'भइया, आप ही तो कहते हैं कि जिद्दी होना भी मनुष्य के अच्छे स्वभाव का लक्षण है इसलिए मेरा जिद्दी स्वभाव-' प्रसादजी इतना सुनकर हंस पड़े और बात वहीं समाप्त हो गयी। कालान्तर में जब मैं फिर काशी गया तो मैंने फिर प्रेमपथिक का प्रसंग उठाया और मैंने उन्हें बताया-'प्रेमपथिक के रहस्य का उद्घाटन तो मैंने कर लिया।' 'कसे ?' उन्होंने पूछा तो मैंने उत्तर दिया- 'यह मै कैसे कहू ?' यह सुनकर वे हंसने लगे और कहा -'मैंने कहा न कि तुम बड़े जिद्दी हो।' जब कभी मैं प्रेमपथिक का पाठ करता हूँ तो कवि के भग्न हृदय की भावना मृतं हो जाती है और उसकी प्रत्येक पंक्ति प्रेम-वेदना-सिक्त लगती है। उसके रहस्य से अवगत होने के कारण मैं संवेदना से अभिभूत हो जाता हूँ। प्रसादजी का किशोरावस्था में एक अन्य ग्वजातीय परिवार के घनिष्ठ सम्पर्क रहा और वे उस सगोत्रीय परिवार से बहुत हिलमिल गये। उस परिवार की एक किशोरी से उनकी घनिष्टता थी और किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करते ही संस्मरण पर्व : २२३