पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३०

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तुम दोनों ही अच्छा पढ़ते हो कभी कभी जब मैं काशी पहुंचता था विश्वम्भरनाथ जिज्जा भी वहां आ जाते थे। वे इलाहाबाद के लीडर प्रेस में काम करते थे, पर प्रसादजी से मिलने के लिए महीने में दो एक बार अवश्य ही आ जाया करते थे। प्रसादजी की उनके ऊपर बड़ी कृपा रहती थी। ___ एक बार मैं काशी में था और जिज्जाजी भी आ गये। जब प्रसादजी अपनी कोठरी में सुरती का मसाला मिलाने लगते हम लोग बाहर इधर उधर टहलते घुमते थे। मुझे आंसू की पंक्तियों याद थी, प्रायः उन्ही को गाया करता था। जिज्जाजी भी आंसू की पंक्तियां बड़े मधुर स्वर में गाते थे। जिस समय हम लोग आंसू की पंक्तियां गुनगुनाते, प्रसादजी सुनकर विभोर हो जाते थे। कभी कभी तो एक ही छन्द कई बार सुनते थे। मुझमें और जिज्जाजी में होड़ लग गई । पंक्तियां आँसू की थी। हम दोनों गा रहे थे । श्रोता प्रसादजी थे। मैंने कहा -'मैं अच्छा गाता हूँ।' पर जिज्जाजी मेरी इस चुनौती को मानने को तैयार न थे; उन्होंने कहा--'मै अच्छा गाता हूँ'। निपटारा के लिए हम दोनों ने प्रसादजी को निर्णायक मान लिया। हम दोनों उनके पास गये। एक छन्द का सस्वर पाठ हम लोगों ने उन्हे सुनाया और निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे-थोड़ी देर बाद निर्णय देते हुये प्रसादजी ने कहा___ 'तुम दोनों ही अच्छा पढ़ते हो' X अशिष्टता के विरुद्ध रोष काशी मे मैं जितने दिन रहता था, प्रसादजी मुझे अपने साथ लेकर ही निकलते थे । एक दिन उन्हे अपने किसी मित्र के यहा जाना था। मित्र महोदय काशी के एक जाने-माने रईस थे। उन्होंने एक नई कार खरीदी थी। 'प्रसाद' जी ने अपने मित्र महोदय से जितनी देर तक बाते की, कार की प्रशंसा का प्रमंग ही प्रधान था। अन्त में वहां से 'प्रसाद'जी ने कही अन्यत्र जाने का कार्यक्रम बनाया। उनके मित्र महोदय ने कहा-'चलिए मैं अपनी गाड़ी से आपको पहुंचा देता हूं। इतना कहकर वे स्वयं गाड़ी के पास आये और उसमें बैठ गये। गाड़ी के भीतर से उन्होंने हाथ से हम लोगों को भी बैठ जाने का संकेत किया। उनका यह आचरण मुझे अच्छा न लगा और मैंने धीरे से प्रसादजी से कहा-'भैया, मैं तो गाड़ी में न बैठेंगा'। उन्होंने कहा--'ऐसा क्यों ?' मैंने कहा-'फिर बताऊंगा। मेरे इस निर्णय को सुनकर प्रसादजी ने अपने मित्र महोदय से कहा-'आप जाइये, इस समय मैं न जा सकूँगा। कुछ आवश्यक कार्य आ गया है' । घर आकर प्रसादजी ने मुझसे पूछा-'तुमने गाड़ी में बैठने से क्यों नाही की ?' मैंने कहा-'भैया, आपके मित्र को शिष्टाचार मालूम २२६ : प्रसाद वाङ्मय