पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३८

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चौधुरी पद से हटाने का प्रयत्न अपने उपवास-व्रत के द्वारा करूं तो सफलता अवश्य मिलेगी अब मैं इसके लिए कृत संकल्प हो गया। सबेरा हुआ, हम लोग (मैं और प्रसादजी) कारखाने में टहल रहे थे। एकाएक मेरे मुख से निकल पड़ा -'भइया, आप तो पूरे हलवाई हैं' उन्होंने कहा-'हाँ, मैं तो हलवाई हूँ ही, इसमें क्या सन्देह-क्योंल्या बात है ? मैंने कहा-'अन्तर, इतना ही है कि हम लोग, मीठे का पाग लेते हैं, चीनी का चासनी लेते हैं, आप तम्बाकू की, यह सुनकर वे मुस्कुरा उठे। बात वहीं समाम हो गई पर मुझे अपने उपवास व्रत का ध्यान बराबर बना रहा। दूसरे दिन हम दोनों गंगा स्नान कर लगभग ११ बजे लौटे। वे तो ऊपर चले गये और मैं नीचे की बैठक में जा बैठा। थोड़ी देर बाद ऊपर से भोजन करने की बुलाहट हुई । मैंने भोजन करने मे नाही कर दी। मेरे इस उत्तर ने प्रसादजी को आश्चर्य में डाल दिया और वे स्वयं नीचे आये और मेरे भोजन न करने का उन्होंने कारण पूछा-मैंने कहा 'भइया, इस घर में मैंने आमरण उपवाम का व्रत लिया है और वह भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न लेकर'। उन्होंने कहा-'वह कौन सा महत्वपूर्ण प्रश्न है' मैंने कहा 'जब तक आप चौधुरीपद से त्याग पत्र नही देंगे, मैं अपना उपवास नहीं तोड़गा।' उन्होंने कहा -यह कैसे होगा-यह तो मेरा पैतृक अधिकार है, इसे मैं कैसे छोढ सकता हूँ' अन्त में यह समाचार बड़ी भाभी के पास पहुंचा और वे भी नीचे आई और उन्होंने कहा --'मकुन्दीलाल तू ई मब का करत हउआ, ई कैसे होई ? इहै करै बदे तू इहाँ आयल हउवा' मैने उनसे कहा-'भाभी, आप इसमें मध्यस्थता न करे, मैं अपने संकल्प पर दृढ़ हूँ। इस प्रकार दिन के तीन बज गये । भोजन किसी ने नही किया प्रसादजी मेरे पास आये, बड़ी गम्भीर मुद्रा में उन्होंने कहा -'अच्छा तुम त्यागपत्र लिखो मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। मैंने कहा-'आप स्वयं लिखें, आपकी भावनाओ को मैं कैसे व्यक्त करूंगा। या आप बोले तो मैं लिखें'। अन्त में उन्होने बोलना आरम्भ किया और मैं लिखता गया। पूरे एक पृष्ठ में उनकी इबारत समाप्त हुई। नीचे थोड़ा सा स्थान बच गया था, उन्होंने अपना हस्ताक्षर किया। फिर क्या था मेरी विजय हुई और मैंने घोषित किया कि'मेरा उपवास ब्रत टूट गया । मै उस त्यागपत्र को लेकर बाहर निकला और 'प्रसाद' जी से मैंने कहा आप चलकर भोजन करें, मैं तुरन्त आता हूँ। मैं 'इन्दु' के सम्पादक वाबू अम्बिका प्रमादजी के पास मै पहुंचा। 'हलवाई वैश्य संरक्षक' नाम का पत्र दूसरे ही दिन निकलने वाला था। वे उसके भी सम्पादक थे। मैने उनके हाथ में पत्र देकर कहा-शिव शिव ! यह पत्र कल निकल जाना चाहिए। पत्र को पढ़कर उनकी त्योरी चढ़ गई। उन्होंने कहा-'यह मेरे नाना का पैतक अधिकार है, इसे छोड़ने का अधिकार उन्हें नही है और मैं इसे अपने पत्र में छापंगा भी नही। अन्त २३४ : प्रसाद वाङ्मय