पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४०

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'भाभी के । मैंने फिर कहा--'व्यापार का काम तो आप करते हैं, फिर कैश उनके हाथ में रहने का क्या मतलब है'। उन्होंने कहा-'उनके मन में यह बात बराबर बनी रहती है कि मैं आधे की हिस्सेदार हूँ और इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने भतीजे उमा प्रसाद को यहां रख लिया है। वे ही दूकान से कैश लाते हैं और भाभी के हाथ में दे देते हैं। उनका परिवार भी यहीं रहता है।' यह सुनकर मैंने उनसे कहा तो भैय्या, इस तरह आपके पास सचमुच एक पैसा नहीं, रह सकता। जब आपके पास पैसे ही नहीं हैं, तो व्यापार में लेन-देन का काम आप कैसे कर सकेंगे। व्यापार में तो लेन-देन के लिए पैसे की आवश्यकता हर समय बनी रहती है।' एक दिन जब मैंने देखा कि प्रसादजी अपनी प्रसन्न मुद्रा में हैं। मैंने उनसे कहा-'भैय्या, यदि आप मुझे क्षमा करें और आज्ञा दें तो मैं आपसे एक अनुरोध करूं। क्षमा इसलिए चाहता हूँ कि जो बात मैं कहना चाहता हूँ, उसका सम्बन्ध आपके परिवार से है।' यह सुनते ही वे बोल उठे --'तो फिर क्या तुम अपने को मेरे परिवार का व्यक्ति नही समझते ? कहो, क्या कहना चाहते हो।' मैंने बड़ी विनम्रता से कहा -'भैय्या कैश आप अपने हाथ में रखिये। भाभी यदि अपने को आधे का हिस्सेदार समझती हैं तो उमाप्रसाद के द्वारा उन्हें हिसाब समझा दिया कीजिए। उमाप्रमाद को भी रखिये क्योंकि भाभी के आधे हिस्से की सूचना उन्हें बराबर मिलती रहे । मेरी यह बात सुनकर वे आधे घंटे तक मौन होकर कुछ सोचते रहे। फिर उन्होंने कहा- 'तुम ठीक कहते हो, कल से में ऐसा ही करूंगा।' इसके बाद दूसरे दिन में कलकत्ता चला आया। _____ लगभग छः महीने के बाद जब मैं फिर काशी गया, तो प्रसादजी मुझसे बड़ी प्रमन्न मुद्रा में मिले और उन्होंने कहा-'मैने, तुम्हारी युक्ति मे काम लिया, मेरा बड़ा लाभ हुआ। 'अब मुझे बाजार का कुछ भी देना नहीं है और चार-पांच हजार रुपये पास भी हैं।' X यह मेरा व्यवसाय नहीं व्यसन है एक बार प्रसादजी से मिलने के लिए एक सज्जन आये; उनके साथ तीन-चार व्यक्ति और थे। वे सज्जन कहीं के राजा थे, या राजकुमार थे यह मैं नहीं कह सकता। प्रमादजी एक खाट पर बाहर बैठे थे उनकी बगल में ही एक तख्ते पर मैं बैठा था। कुछ इधर-उधर की बातें चल रही थीं। प्रातःकाल के आठ बज रहे थे। ____ उक्त सज्जन ने प्रसादजी को अपना परिचय दिया। उन्होंने बगलवाली चौकी पर बैठ जाने के लिए संकेत किया। थोड़ी देर बाद उस सज्जन ने प्रसादजी से कहा-'आपके प्रेम-पथिक को मैंने पढ़ा। उससे मैं बहुत प्रभावित हूँ। यदि आप २३६ : प्रसाद वाङ्मय