पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४१

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उसे मुझे समर्पित कर दें तो यह आपकी मुझ पर कृपा होगी। इसके लिए जो कहें, सेवा करने के लिए तैयार हैं।। सेवा का नाम सुनते ही प्रसादजी की त्यौरी बदल गई। उन्होंने बडी विनम्रता से कहा-'आप लोग राजा हैं, आपके पास इतनी सम्पत्ति है कि आप लोग सब कुछ कर सकते हैं। पर आपकी सम्पत्ति लेने की क्षमता और सामर्थ्य भी तो होनी चाहिए। आप जानते हैं, मै सुर्ती और जर्दे का व्यवसायी हूँ, कविता मेरा व्यवसाय नही व्यसन है। यदि आपके पास पैमें है तो मुझसे अच्छा से अच्छा जर्दा, इतर, खुशबू मांग सकते हैं। यह मेरे व्यवसाय के अन्तर्गत है; पर काव्य रचना मेरा व्यवसाय नही है।' प्रसादजी के मुंह से यह उत्तर पाकर वे सज्जन बहत लज्जित हुये और उन्होंने अपनी धृष्टता के लिए क्षमा प्रार्थना की। चलते समय उक्त मज्जन ने प्रमादजी मे कहा-'यदि आप आज्ञा दें तो मै 'प्रेम पथिक' की एक पंक्ति लेकर अपने दरबार मे टांग दूं। वह मुझे बहुत प्रिय है। प्रसादजी ने कहा- यह तो आपका अधिकार है, पर वह पंक्ति कौन सी है ? उस सज्जन ने बतलाया 'इस पथ का उद्देश्य नही है श्रान्त भवन मे टिक रहना किन्तु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं :'. प्रसादजी परम यात्रा-भीरु थे। 'प्रसाद'जी यात्रा से बहुत घबड़ाते । यदि कभी उन्हें यात्रा करनी होती तो महीनों पहले से उन्हे चिन्ता हो जाती और उसकी तैय्यारी होने लगती। कभीकभी तो यात्रा की सारी तैयारी हो जाने पर भी यदि उनकी इच्छा नही होती तो ठीक मौके पर अपनी यात्रा स्थगित कर देते थे । ____ एक बार मैंने कलकत्ते में स्वजातीय वैश्य महा गभा का आयोजन किया। उसमें प्रसादजी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया था और मैं मंत्री था। मेरे अग्रज श्रीपुरुषोत्तमदासजी उसके प्रबन्धक थे। इसकी सूचग प्रसादजी को दे दी गई और साथ ही निमंत्रण भी। उन्होने उक्त आयोजन में सम्मिलित होने की स्वीकृति भी भेज दी। उस समय कलकत्ते में हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों से मेरा अच्छा परिचय हो गया था। उनमें भी पं० बेचन शर्मा उग्र, श्री विश्वम्भरनाथ जिज्जा और पं० माधव शुक्ल तो मेरे अत्यन्त निकट के व्यक्ति थे। मेरे आयोजन का सारा उत्तरदायित्व इन्हीं लगों पर था। 'प्रसाद'जी के आगमन की सूचना ने यहां के आयोजकों में दूना उत्साह उत्पन्न कर दिया। आयोजन को सफल बनाने के लिये पूरा प्रयास हुआ और बड़ी सज-धज के साथ तैयारी की गई। जिस दिन आयोजन सम्पन्न होने वाला था, प्रातःकाल हम लोग बड़ी तैयारी के संस्मरण पर्व : २३७