पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४२

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साथ प्रसादजी के स्वागत में स्टेशन पहुंचे। घण्टों प्रतीक्षा के बाद गाड़ी आई, हम लोग बड़ी उत्सुकता और उमंग के साथ प्लेटफार्म पर आगे बढ़े। हम लोग प्रसादजी को ढूंढ़ने लगे, पर एक कम्पार्टमेण्ट से निकले उनके कार्यवाहक व्यक्ति तथा श्री दुर्गाप्रसादजी गुप्त । पूछने पर ज्ञात हुआ कि प्रसादजी नहीं आ रहे हैं, उनका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। हम लोगों की आशा पर एकदम पानी फिर गया। मुझे तो उनके ऊपर क्रोध भी आया, पर क्या करता, उनमें मेरी श्रद्धा भी कम न थी। आयोजन को तो किसी प्रकार सम्पन्न किया गया, पर अनुत्साह पूर्वक ही। श्रीदुर्गाप्रसादजी ने 'प्रसाद'जी का प्रतिनिधित्व किया। ___ इसके बाद लगभग एक वर्ष तक मैं काशी नहीं गया। कारण प्रसादजी के ध्यान में था। उन्होंने पत्र लिखकर मुझे बुलाया । वहां पहुंचने पर उन्होंने मुझे प्रसन्न करने के लिए अनेक उपाय किये। अन्त में बातों को ध्यान में रख मेरे हृदय का सारा रोष जाता रहा। ____ एक दिन जब मैंने उनसे पूछा-- भैय्या, उस समय आप कलकत्ते क्यों नहीं आये ?' उन्होंने कहा--'अजी प्रपंच में पड़ने कौन जाता ?' x प्रसादजी में सहनशीलता भी कम न थी मेरे पिताजी बीमार थे । हम लोग उनकी चिकित्सा कराने के लिए काशी ले गये थे । बांसफाटक मुहल्ले में एक पूरा मकान किराये पर लिया गया था। वहीं हम लोग ठहरे थे। मकान और हम लोगों के आवश्यक सामानों का सारा प्रबन्ध प्रसाद जी ने ही किया था। पिताजी बीमारी के कारण दुर्बल तो थे ही, उनके स्वभाव में भी कुछ चिड़चिड़ापन आ गया था। छोटी सी बात पर भी उन्हें क्रोध आ जाता था, और जो सामने पड़ता उस पर बरस पड़ते थे। प्रसादजी पिताजी का समाचार लेने के लिए सुबह-शाम प्रति दिन आते थे। प्रातःकाल गंगा स्नान के समय आ जाते और सायंकाल दूकान जाते समय पिताजी को एक बार देख लिया करते थे। पिताजी एक दिन किसी बात को लेकर प्रसादजी पर काफी नाराज हो गये और उन्होंने बहुत कुछ कहा। पर 'प्रसादजी' ने उनका एक भी उत्तर नहीं दिया। वे चुपचाप सुनते रहे। मालूम पड़ा-जैसे, पिताजी की बातों का उनके ऊपर कोई असर ही नहीं हुआ। उनके आने-जाने का क्रम पूर्ववत बना रहा। वे जव भी पिता जी को देखने आते थे, मुझे अपने साथ ले लेते थे। फिर घंटे दो घंटे बाद वे मुझे छोड़ देते और मैं पिताजी के पास आ जाता। व्यापार विषयक संस्मरण प्रसादजी का पुश्तैनी कारबार था सुर्ती-जर्दा का। जो अब भी उनके आत्मज श्री रत्नशंकर प्रसाद की देख-रेख में पूर्ववत् चालू है । इस पुश्तैनी प्रतिष्ठान का नाम २३८: प्रसाद वाङ्मय