पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४३

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है-'शिवरतन साहू देवी प्रसाद सुंघनी साहु' । यह प्रतिष्ठान सुर्ती-जर्दा, और सुंघनी तैयार करता है। इसी आधार पर इनका घराना सुंघनी साहु के नाम से विख्यात हुआ और इसी नाम से आज भी ख्यात है । कही बताया जा चुका है कि शैशव काल में ही प्रसादजी पितृहीन हो गये थे और कारोबार देखा करते थे—आप। मात्र १६ वर्ष की उम्र में अग्रज की भी छत्रछाया आपके सिर से जाती रही और कारोबार का पूरा भार आप पर आ पड़ा। निष्कपट, सरल, कविहृदय प्रसादजी उस जागतिक चातुर्य से सर्वथा अनभिज्ञ थे जो कारोबार सम्भालने के लिए आवश्यक होता है । शनैः शनैः कारोबार का ज्ञान तो आपने प्राप्त कर लिया पर उममे निहित चातुरी और छल प्रपंच से सदा अनभिज्ञ ही रहे क्योकि प्रकृति से उन्हे यह मिला ही नही था। प्रतिष्ठान का एक एजेट था जिसका नाम था श्री शारदा प्रसाद । वही सर्वत्र जाया करता था और पावना वसूल किया करता था। पूर्वी बंगाल मे इस प्रतिष्ठान के माल की बड़ी खपत थी। एक तरह से सारा कारोबार उसी एजेट के हाथ मे आ गया था और कालान्तर मे उसने धोखाधड़ी देना शुरू कर दिया और काफी नुकसान पहुंचाया। उसकी दुरभिसंधि को आप जान तो गये पर यह न सोच पते थे कि उससे छुटकारा कैमे पाया जाय । एक बार प्रसादजी ने मुझसे पूछा कि उक्त एजेट के सम्बन्ध मे मेरी क्या धारणा है। मैंने उन्हे बताया कि मैं उसे परम धृत और कुटिल समझता हूँ। यह सुनकर उन्होने मुझसे पूछा कि यह बात तुमने पहले क्यो नही बताई। मेरे यह कहने पर कि आपके व्यापारिक बातो मे अपनी राय प्रकट करना है मै अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर समझता हूँ, आपने मुझसे राय मागी कि इस व्यक्ति से छुटकारा पाने के लिए अब क्या करना चाहिए। मैने परामर्श दिया कि आर्डर सप्लाई का काम उससे न करवाइए और वसूली का काम करवाते रहिए जब तक बकाया रकम वसूल न हो जाय । पर ऐसा करने मे इस बात का डर भी था कि एजेट की नीयत और न खराब हो जाय और वह रकम वसूल करके हडपने न लगे। अनन्तोगत्वा यह तय किया गया कि उसे नौकरी से हटा दिया जाय और आर्डर लेने का और वसूली का काम एक पुराने मुनीम को सौपा जाय । ऐसा ही उन्होने दिया और इस बीच सभी व्यापारियों को पत्र द्वारा सूचित कर दिया गया कि वह एजेंट (शारदा प्रसाद) अमुक तारीख से नौकरी से हटा दिया गया है और अदायगी की कोई रकम उसे न दी जाय । दि बनारस परफ्यूमरीज़ एक बार परफ्यूमरी का .कारबार चलाने का विचार उनके मन मे आया। उनकी योजना यह थी कि परफ्यूमरी सुगंधि द्रव्य) बनाने का एक प्रतिष्ठान कलकत्ता में किसी विश्वनीय व्यक्ति के साझेदारी में स्थापित किया जाय । इस सम्बन्ध मे उन्होंने मुझे बनारस बुलाया। उनका ख्याल था कि चूंकि कलकत्ता में संस्मरण पर्व : २३९