पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मै ( मुकुन्दीलाल गुप्ता ) 'गुप्ता ब्रदर्स' नामक मिष्ठान्न निर्माता पुश्तैनी प्रतिष्ठान को चलाता ही हूँ इसलिए परफ्यूमरी वाला प्रतिष्ठान भी मेरी साझेदारी में सुगमतापूर्वक चल सकता है । मैं उनकी योजना से सहमत हो गया। आधे-आधे की साझेदारी में 'दि बनारस परफ्यूरीज़' नामक एक प्रतिष्ठान कलकत्ता में खोलना तय पाया। परफ्यूमरी में बनाने की मूल सामग्री वह बनारस से खुद भेजेंगे ऐसा निर्णय उन्होंने लिया। उनके आदेशानुमार कलकत्ता वापस आकर मैंने उक्त नाम से एक प्रतिष्ठान चालू करने की सारी व्यवस्था कर दी। स्थान ले लिया गया आफिस सज गया और एक क्लर्क भी रख लिया गया। मूल सामान आने की प्रतीक्षा की जाने लगी। तीन चार महीने बीत गये पर बनारस से कोई सामग्री नहीं आई। क्लर्क को मैंने आदेश दिया वह एक रिमाइण्डर प्रसादजी को भेजे, क्लर्क मद्रासी था और उसने अंग्रेजी में पत्र टाइप करके और मुझसे हस्ताक्षर कराके भेज दिया। पत्र में क्लर्क ने किसी एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया था जिससे प्रसादजी बहुत नाराज हो गये। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है पर शायद उस शब्द से चातुरी की शिकायत का दूरस्थ आभास मिलता था। परिणाम यह हुआ कि सारी योजना गर्त में चली गई और उन्होंने प्रतिष्ठान बन्द करने को कह दिया। मैं उनके मूड से परिचित था। मै समझ गया कि उनकी तत्कालीन मनः स्थिति में, प्रतिष्ठान को चाल रखने का आग्रह व्यर्थ है और उससे उन्हें और क्षोभ मिलेगा। सुतरां प्रतिष्ठान बन्द कर दिया गया। पर यह सब हुआ इस शिष्टता के साथ कि हमारे आपसी सम्बन्ध में रच मात्र भी अन्तर नही आया और उनका स्नेह मुझ पर पूर्ववत बना रहा। पुस्तक प्रकाशन की योजना एक बार प्रसादजी ने पुस्तक प्रकाशन का कारोबार चलाने का विचार किया। इस सम्बन्ध में मुझे काशी बुलाया। उन्होंने अपना योजना मुझे बताई। मै उससे सहमत हो गया । उस काम में घाटा आने की कोई गुंजाइश नही थी। तय यह हुआ कि हम दोनों की आधे-आधे की साझेदारी में यह काम शुरू किया जाय काशी में । उमकी वित्तीय व्यवस्था का भार मैने लिया। मेरा अपना पुस्तैनी कारोबार कलकत्ता में था जहाँ से मेरा हटना सम्भव ही नहीं था। प्रकाशन के काम का दायित्व उन्होंने श्री अम्बिका प्रसाद गुप्त को सौंपा। अम्बिका प्रसाद जो उनके भांजे थे सुतरां उनके अपने आत्मीय थे। उन पर प्रसादजी का स्नेह और विश्वास भी था। वे एक स्वजातीय मासिक पत्र के सम्पादक भी थे। काफी होशियार आदमी थे और उस काम को चलाने की क्षमता भी उनमें थी। उन्हें मेरी आधे की साझेदारी की बात कम जंची, उन्होंने मुझे बड़े ढंग से समझाया कि मैं जो भी रकम लगाऊँ उसका ब्याज ले लिया करूं। मैं उनके सुझाव को सुनकर स्तब्ध रह गया क्योंकि ब्याज पर रकम लगाने के लिए तो कलकत्ता काशी से कहीं अधिक अनुकूल स्थान है। मैंने अपनी २४० : प्रसाद वाङ्मय