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असहमति सद्यः व्यक्त कर दी। मशीनों आर्डर तार से वहीं से कैंसिल कर दिया और जो कागज आ चुका था वह वापस कर दिया गया~और यह योजना भी खटाई में पड़ गई। मेरे अनुज के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के निमित्त प्रसादजी का कलकत्ता आगमन बात सन् १९३१ की है। मैं अनुज के विवाह का निमंत्रण देने काशी पहुँचा। वहां मुझे देखते ही प्रमादजी ने पूछा-'अचानक आना कैसे हुआ ?' मैंने कहा-'आपको स्मरण दिलाने आया हूँ।' उन्होंने कहा-'किस बात का ?' मैंने कहा-'आप मेरे पिता को बचन दे चुके है कि मैं नन्दू के विवाह में कलकत्ता अवश्य चलंगा' अब नन्दू का विवाह निश्चित हो चुका है। उसी का स्मरण दिलाने के लिए मुझे आना पड़ा, क्योंकि निमंत्रण देने पर तो आप जायेगे नहीं। मेरे विवाह में निमंत्रण लेकर भी आप नही पहुंचे । उसी समय से आप वचनबद्ध हो चुके हैं। इसके बाद उनका प्रश्न हुआ-'और किमको-किसको तुम आमंत्रित कर रहे हो ?' मैंने कहा - 'उसका विचार तो मैं अब करूंगा', क्योंकि मैं उन्हीं लोगों को निमंत्रित करना चाहता है, जिनके द्वारा आपकी यात्रा में किसी प्रकार की बाधा न हो। वैसे एक निमंत्रण बाबू अम्बिका प्रसादजी को तो देना ही है। प्रयाग में श्री जंतली महोदय को भी निमंत्रित करना है।' प्रसादजी के साथ मेरी बात यही समाप्त हो गई। दूसरे दिन मैं शिवशिव (बाबू अम्बिका प्रसादजी) के पास पहुंचा। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा-'कब आये ?' मैंने कहा-कल ही आया। 'कहां ठहरे हो?' उन्होंने फिर प्रश्न किया। मैंने कहा-'होटल में' । मेरे इस उत्तर से वे कुछ क्षुब्ध हुए-क्योंकि प्रातःकाल वे मुझे प्रसाद मन्दिर मे देख चुके थे। उनका प्रात:- नान प्रतिदिन वहीं होता था। उन्होंने कहा 'क्या वह होटल गोवर्द्धन सराय न है ?' मैने कहा, 'हां, अब वह मेरे लिए होटल ही है।' फिर उन्होंने पूछा--'तुमने और किसे निमंत्रित किया है ?' मैंने कहा-'अपनी बिरादरी में अमुक-अमुक को और परजात में बाबू जयशंकर प्रसाद को ( चौधराना छोड़ने की प्रतिक्रिया मे जातीय महासभा ने उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया था इसलिए मैने परजात कहा ) मेरे मुख से यह सुनकर उनकी त्योरियां चढ़ गई। पर चुप रह गये। फिर उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को निमंत्रित करने की सलाह दी, जिसे मैं नहीं चाहता था, पर उनके आग्रह को भी मै टाल न सका। अनिच्छा रहते भी स्वीकार करना पड़ा। उन्होंने कहा-'मैं उस आदमी को बुलवा देता हूँ।' मैंने कहा-'अभी तो मझे समय नही है, प्रयाग जाना है। उधर से लौटकर उन्हे निमंत्रण दे दूंगा।' इतना कहकर मै चलता बना। इलाहाबाद से लोटकर मै फिर काशी आया, पर शिव-शिव (अम्बिका प्रसाद) के पास नहीं गया। कलकत्ता चला आया। १६ संस्मरण पर्व : २४१