पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४६

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मेरे अनुज के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए प्रसादजी ने ट्रेन में एक पूरा कम्पार्टमेण्ट रिजर्व कराया। तिलकोत्सव के एक दिन पूर्व वें बनारस एक्सप्रेस से कलकत्ता पहुंचे । संयोगवश उसी गाड़ी से 'इन्दु' के सम्पादक, बाबू अम्बिका प्रसादजी भी कलकत्ता आये। पर 'प्रसादजी' से उनकी कोई बातचीत नही थी। इन दोनों के बीच यह तनाव उस समय से था, जब से प्रसादजी ने बिरादरी के चौधुरी के पद से त्यागपत्र दे दिया था। और अन्त तक रहा। शिवशिव प्रायः उसी समय १९३७ ई० में बीमार पड़े थे, मरने से प्राय एक मास पूर्व वे प्रमादजी को एक बार देखने गए और शिव-शिव कहकर बैठ गए। लगभग घण्टे भर बंटे रहे विन्तु परस्पर कोई बात नहीं हुई। मार्च १९३७ में शिवशिन 4] निधन हो गया प्रसादजी ने उन सभी कृत्य कराए और बहुत दुखी हुए थे। बहन देवकी न गट तर उन्हे देगाने गे पडे । इन लोगों के स्वागतार्थ हम लोग हाडा स्टेशन पहुँन । संयोगवश में तो 'प्रमाद' जी को लेने उनके पम्पार्टमेण्ट की गोर गया और मेर गाय के अन्य ल ग बाबू अम्बिका प्रसाद की ओर बढ गये। 'प्रमादजी' की ओर मेरा जाना, अम्बिका प्रमाद जी को कुछ खटका, पर वे कुछ बोल न सके । इसके पश्चात् इन अतिथियो को उनके आवासों तक पहुंचाया गया। अम्बिका प्रमादजी को ठहरने के लिए भारत वस्त्र भण्डार में प्रबन्ध किया गया था। यह तुला पट्टी मे ही या और कलकत्ते का सर्वप्रथम खादी-केन्द्र वहाँ हम लोगो ने खोला था। प्रसादजी और उनके साथ ने लोगों वो ७४, तुलापट्टी के घर अपने निजी कक्ष में भेज दिया गया, पर उन्हे उस विशेष स्थान पर थोडी देर के लिए रोक लिया गया, जहां स्वागत द्वार बनाया गया था। स्वागत द्वार के निर्माण मे काशी विश्वनाथ के मन्दिर की अनुकृति थी, जिमकी स्वाभाविकता ने प्रमादजी को बहुत प्रभावित किया, यहाँ तक कि लगभग आधे घटे तक वे देसते रह गये। अचानक उनके मुख से निकल पड़ा-'यह तो काशी विश्वनाथ मन्दिर की अनुकृति है मैंने कहा-'हां आप भी तो पधारे है' 'मेरे इस उपर से वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर कहने लगे-'बहुत अच्छी सजावट है। इसके बाद उन्हे भी घर पहुँचा दिया गया। उनके साथ सात व्यक्ति और थे, वे थे- दोनो भाभियाँ, बच्चा (रत्नशंकर), नौकर, दाई, नाऊ और एक ब्राह्मण। 'प्रसाद परिवार की यह परम्परा थी कि घर का ज्येष्ठ पुरुष किसी अन्य के हाथ का बनाया कच्चा भोजन नही करता था, इसलिए उनके भोजन की व्यवस्था अलग की गई थी। बड़ी भाभी भोजन बनाती थी, अकसर में भी उन्हीं के साथ भोजन करता था, क्योंकि भाभी के हाथ का भोजन मुझे बहुत प्रिय था । दूसरे दिन तिलकोत्सव सम्पन्न हुआ। वाबू अम्बिका प्रसादजी को-जाति बहिष्कृत प्रसादजी के साथ मेरा भोजन करना खटक गया। इसका उलाहना भी उन्होंने दिया। पर मैंने इसकी वास्तविकता उन्हें ममझा दी। मैंने कहा --'शिवशिव, इसमें आप २४२ : प्रसाद वाङ्मय