पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५८

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करने के बाद में स्वयं काशी पहुँचा। वहां पहुंचने पर सब बातें स्पष्ट हुई, पर अचानक रुक जाने के कारण का रहस्य न खुल सका। मैने प्रसादजी से कहाभैय्या, वहाँ तो मेरी स्थिति बडी दयनीय हो गई। आप दो-दो दिन के लिए भी पहुंच गये होते, तो मेरी प्रतिष्ठा बच जाती। उन्होंने कहा-मुकुन्दीलाल मेरा मन अचानक हिचक गया और कोई बात नहीं है। x प्रसादजी के लिए बेदाना अपने जीवन के अन्तिमकाल मे 'प्रसादजी' ने मुझे लिखा---'यहाँ बनारस में अच्छा बेदाना नहीं मिलता, तुम गेज एक मेर वेदाना कलकत्ता में भेज दिया करो'। यहां मैने एक पेशावरो फलवाले से बात की। उसने एक सेर अच्छा बेदाना बनारस भेजना आरंभ कर दिया। कुछ दिनो बाद प्रसादजी ने मुझे लिखा कि बेदाना तो प्रतिदिन आ जाता है, पर इधर कुछ दिनो से उसमे कुछ दाने सड़े निकल जाते है'। मैंने उस पेशावरी से भेट की और उमसे वेदानो के सम्बन्ध की शिकायत की बात कही। उसने मुझे बचन दिया कि अब बेदाने अच्छे किस्म के भेजूंगा-फिर आपको शिकायत न मिलेगी।' ___मैंने प्रमादजी को पत्र लिखकर बेदानो के सम्बन्ध में फिर पूछा-इस बार उन्होंने लिखा-'बेदाने तो अब अन्छे आने लगे हैं, पर तुमने इसका कोई बिल नही भेजा । मैंने उन्हे फिर लिखा-'भैय्या, वेदाने आप लेते रहे, बिल की चिन्ता न करें; मैं एक साथ आकर सब रुपये ले लूंगा'। पर प्रसादजी को विश्वास न हुआ। वे समझ गये कि-यह मुझसे बेदानों के दाम न लेगा। उन्होने मुझे लिखा-'अब बेदाने न भेजो। मुझे अव आवश्यकता नही है। उनके इस पत्र को पढ़कर मेरा हृदय कांप गया। मैंने उन्हें फिर पत्र लिखा किन्तु उन्होने वेदानो का लेना स्वीकार नही किया। x तुलादान कुछ दिनो के बाद प्रसादजी को देखने के लिए मैं काशी गया। मैंने घर मे प्रवेश किया तो देखा कि वे भीतर की चौक के वे पश्चिम वाली दालान में लेटे है । शरीर दुर्वल और क्षीण हो गया था। कुशल प्रश्न हो ही रहे थे कि इसी बीच बड़ी भाभी एक बड़ी कुर्द (डलिया) में चावल लेकर नीचे उनके समीप आकर खडी हो गई और प्रमादजी से कहने लगी-तनी एके छू दऽ।' यह सुनकर वे एकदम झल्ला उठे और बडे जोरो मे कहा-'एके छू देहले का हम स्वर्ग में पहुंच जाब ।' उन्होंने चावल का स्पर्श नही किया। भाभी चपचाप ऊपर चली गई। भाभी के चले जाने के बाद मैंने प्रमादजी से कहा-'भइया ! सन्तोष के लिए २५४ : प्रसाद वाङमय