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सब का करना चाहिए। यदि भाभी को इसमे विश्वास है, और ऐसा करने से वे कल्याण की कुछ आशा करती हैं, तो आपको स्पर्श करने में क्या आपत्ति है ?' उन्होंने अपना सिर मुझे दिखाते हुए कहा - 'देखो, यही मेरा कल्याण हुआ है।' दो दिन पहिले प्रसादजी का तुलादान हुआ था। तराजू की डोरी टट जाने के कारण तराजू की डांड़ी से सिर फट गया था। इसीलिए वे झल्ला रहे थे। कुछ देर बाद जब मैं ऊपर भोजन क/ने गया तो बड़ी भाभी ने मुझसे कहा'देखलऽ हो मकुन्दीलाल, इ कुछ कर नाही देत हउवन, का होई ?' मैंने भाभी को समझा बुझा कर कुछ सन्तोष देने का प्रयत्न किया, पर वे वहन दुखी थी। दो तीन दिन वहाँ रहने के बाद मैंने प्रमादजी से कहा - 'भइया, यदि आज्ञा दें, नो में कलकत्ते चला जाऊँ, दस पन्द्रह दिन बाद फिर आ जाऊँगा।' उन्होंने कुछ चिन्ता भरे स्वर मे कहा -'आओ, पर अब तुम क्या आओगे' उस समय उनके इन शब्दों पर मेरा ध्यान नही गया, पर उसके बाद उनके दन मुझे न मिल सके । मंस्मरण पर्व : २५५