पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भास्ता शास्तामम भवोत्तीर्ण भवन्मयमनुत्तरम् -अन्तेवासी (डा० राजेन्द्र नारायण शर्मा) शिष्ट विनोद-प्रियता देवोपम गुण है। ऐसा योगिराज महर्षि श्री अरविन्द का कथन है: Humer is a devine quality (Thoughts and Aphorism) उनसे पूछा गया भगवान कभी हंसते है। उत्तर दिया। हां उनके तीन बार हंसने का प्रमाण मिलता है। दो का उल्लेख अप्रासंगिक है। तीसरी बार वे खूब हंसे जब शंकराचार्य ने 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और उसी जगत के दिग्विजय के लिये निकल पड़े। महर्षि का यह शिष्ट हास्य क्या देवोपम नहीं? महाकवि देवीप्रसाद कवि चक्रवर्ती के पिता महा मनीषी श्री दुखमंजनजी बगीचे में बैठे थे। पिस्ता बादाम और केसर की पिसी उनकी ठंढाई का घोल छन रहा था। उद्यान के फाटक पर पहरा देने वाले ने सूचना दी-'महाराज हथुआ फाटक पर खड़े हैं । आपसे मिलना चाहते है ।' मन्द स्मित के साथ घुलते हुए केशर की ओर इंगित कर दुखभंजनजी बोले-उनसे जाकर कह दो-'काश्मीरेन्द्रो घुलत्यत्र हथुआना च का कथा' (केसर का पर्याय काश्मीर है)। ___ महायोगी श्री अरविन्द के इस उद्वाचन के आलोक मे युग प्रवर्तक महाकवि श्री जयशकर प्रसादजी के सहज विनोद प्रिय व्यक्तित्व की एक झांकी अवलोक्य हैं। श्री माखनलालजी चतुर्वेदी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद के भाषण में एक जगह रहते है-भारत गे एक ऐसा भी नगर है जहाँ केवल आचार्य ही होते हैं। कोई शिष्य नहीं होता। कुछ लोग अपने नाम के आगे आचार्य लगाते हैं (जैसे आचार्य केशव प्रसाद मिश्र) कुछ लोग अपने नाम के पीछे आचार्य लगाते है (जैसे श्री पद्मनारायण आचार्य) नाम नहीं लिया पर निश्चय ही उनका अभिप्राय वाराणसी से था। इस व्यंग्य मे क्तिना मधुर हास्य ध्वनित है। वाराणसी मे गगा तट पर विश्वनाथ गली में आज भी जब दो व्यक्ति मिलते हैं । एक दूसरे से पूछता है 'का गुरू !' दूसरा उत्तर देना है-'हाँ गुरु' । ऐगी विलक्षण नगरी के निवासी थे प्रसादजी ! सम्पर्क में आए अपने आसपास के लोगों के व्यक्तित्व के उपादान, उनके गुण २५६ : प्रसाद वाङ्मय