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वर्णन कर रहे थे। वे प्रायशः बनारसी भोजपुरी में बातें किया करते थे-सबसे, केवल इलाहाबाद के साहित्यकों से खड़ी बोली में । डाक्टर साहब ने उन्हें उस दिन Avena Sativa देने को कहा। प्रसादजी ने उस दवा का हिन्दी नामकरण किया "अब न सतइब।" बेढबजी नित्य उनके साथ वहां आते थे। वे बोले प्रसादजी आप कमजोर हो गये हैं। ताकत के लिये कोई पुष्टई खाइये। प्रसादजी बोले मास्टर गहब पुष्टई खाकर लोग-बाग प्रायः दुष्टई करते हैं। मुझे वह करना नहीं है। उसके दूसरे ही दिन किसी बात पर खफा होकर बेढबजी ने प्रसादजी को डांट दिया वे बहुत क्रोध की मुद्रा मे थे। प्रसादजी ने मुस्कराते हुए केवल इतना ही कहा मास्टर साहब ! संसार में सभी आपके शिष्य नहीं हैं। कुछ मित्र भी हैं। कृष्णदेव प्रसाद गौड़ "बेढब"जी पानी पानी हो गए। अपनी "न खलु ननु धृष्टा मुखर वा" की भुल उनकी समझ में आ गई और भूरि भूरि पात्ताप करते हुए उन्होंने तत्काल प्रसादजी से क्षमा याचना की। प्रमादजी ने कहा "गौड़ी माया दुरत्यया" कामायनी का नामकरण प्रसंग दिवस का अवसान समीप था। लेकिन अभी गगन कुछ लोहित नहीं हुआ था। पक्षी अपने नीडों में इकट्ठा होने और चहचहाने लगे थे। उनके गांध्य कलरव को सम्बोधित कर पंतजी उनसे पूछ रहे थे। मेरी बाल विहंगिनि तूने किसमे मीखा यह गाना मैथिलीशरणजी गांवों की गोधूलि-मुपमा को देख कह रहे थे : संध्या समय गांव के बाहर होता नन्दन विपिन निछावर दीप्त करने के कुछ पहले महादेवीजी स्नेह और वर्तिका ले अपना वह दीपक संजो रही थी जिसे सम्बोधित कर वह गुनगुना उठी थी। -मधुर मधुर मेरे दीपक जल ! मैं अंचल की ओट किये हूँ सुभग, न तू बुझने का भय कर | उमी समय की बात है-प्रदोष बेला की। नित्य की मांति प्रसादजी हरे भरे उद्यान में उम ममय पत्रिक देवालय के चबूतरे पर आए। उमसे सटे कृप के जल से स्नान करने घर से घड़ा लेकर मैं भी पहुंच जाता-प्रायः सदा ही-उनके देवोपम २५८: प्रमाद वाङ्मय