पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५६३

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सानिध्य की महत्वकाक्षा--लालसा से खिच कर । उस दिन उनके हाथ में एक कागज का एक छोटा सा टुकड़ा था, एक छोटी सी पेन्सिल भी। उनके चेहरे पर गहन चिन्तन की एक रेखा पी। धीरे-धीरे चिपटी लकड़ी की खड़ाऊँ पहने वे चबूतरे के पास आये । बोले-'महाकाव्य पूरा हो चुका है उसका नाम क्या रखा जाय-यही समस्या है। आपने कुछ सोचा ही होगा'-मैंने पूछा। उन्होंने कहा 'हाँ'-नाम सोचने का काम जारी है । प्रणयन के साथ-साथ पहले अर्थात् रचना के उषाकाल में इसकी पदबी 'मन्वन्तर' थी। 'उसके बाद उस नाम का स्थान' लिया महाकाव्य के विषयानुरूपी श्रद्धा और मनु ने । किन्तु वह भी जमा नहीं ।' जैसे भी हो आज उसे ढूंढ़ना ही है । मिलजुल कर । उनके साथ-सहचिन्तन का बड़ा गौरव था वह ! ___ मैंने कहा चरित नायक पुरुषो के नाम पर महाकाव्यों के नामकरण की परम्परा कुछ पुरानी-अथच, घिसी-पिटी हो चुकी है। उन्हे ने कहा तुमने इस महाकाव्य की चेतना कुछ तो सुनकर' स्वगत कर ली है कोई नया जो अपने मे इस रचना की -समग्रता को आसम्यक समेट सके सोचकर बताओ। ___ 'आपके रहते भला मेरी क्या हैसियत है नाम सोचने की'--मैंने सविनय निवेदन किया। उन्होने उसका जो उत्तर दिया वह उनकी देवोपम महिमा के अनुरूप था। बोले-'देखो, विचार किसी की मारूसी जायदाद नहीं है। शालिग्राम की बटिया क्या छोटी क्या बड़ी-एक होती है' ___ 'पृथ्वी पर मनोमयी प्टि Mental civilizaliom के स्थान पर विज्ञानमयी अतिमानस सृष्टि-A civilizatiom of supramental role की अवतारणा के तपस्वी, महायोगी और महाकवि श्री अरविन्द चौबीस हजार पंक्तियो वाला एक महाकाव्य लिखने में संलग्न है-जिसका नाम सत्यवान न होकर 'सावित्री' होगा।' मैंने कहा-'आपका अधीत बडा ही तेजस्वी और जन्मान्तरीय संस्कार से प्रबुद्ध हैं । 'श्रद्धा' का कोई वैदिक पर्याय ढूढ़े । काम बन जाय ।। जिस कार्य के पूरा होने में सदियां बीत जायें वही कार्य अनुग्रह के एक देवमुहूर्त में निष्पन्न हो जाता है। . १. प्रकाशकों ने इसका विज्ञापन भी कर दिया था। (सं०) २. मेरे साथ प्रूफ देखकर भी। संस्मरण पर्व : २५९