पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५६८

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- - प्रशस्ति ( महाकवि 'प्रसाद' की पुण्य स्मृति में ) -दुर्गादत्त त्रिपाठी । बचान, योरन और जरा का चक्कर पूरा करने पर ग्रावागत प्राणी जैसे फिर बचपन लग्पने को आता, जग के नानो की मति पार यौवनपुनः जरा-प्रतिकला उमी यौवन कीपुनः निधन पिछले गम्मरण-गरीना और पुन ग्रावागत के नव बन्धन, या जैसे हो पास लाल होने के अष्टचन्द्र की गोट किन्तु मर जाये और खिलाडी हतमनि-मा रह जागे - उधर जीते द्वन्द्वी की, प्रश्न इधर हो पुनः दये-धमके साहम म चलना, ठीक-ठीक ऐगी ही गति है मेरी । कितने आघातो से विप्लुत मनको कितने द्वन्द्वो मे छीजे जीवन को, चिरगिषण नत उदर-भरण क्षमता को. और मनमरी मानभरी मेधा को मार च ने तुम मात्रमाव्यसहभोगी, बात् जगशङ्का प्रमाद, अममय ही। कितनी सुखमय मन्ध्याएं की काली उम नरियल बजार वाली बैठक मे । पान और सुरती की पृष्ठपटी पर कंगी केगी रचनाएं मेधा की, वह 'अजातशत्रु' की कथा. 'आंसू के रम- रञ्जक पद, 'स्कन्दगुप्त' की भाषा, 'तितली' की ग्लु-ग्थिति चित्रण-गली, २६४ :प्रसाद वाङ्मय