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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५७०

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बिना मान बेचे न प्रकाशन पाये ? अपनी स्त्री, बच्चों की रोटी काटे और बचाकर पैसा करे प्रकाशन अपने ग्रन्थों का, न किन्तु बिक पायें सौ प्रतियां भी, क्योंकि कला की कीलक विविध बेड़ियों में है विज्ञान भी। क्यों महानमानव की गतकोलाहलमति, साधन निरपेक्ष, निरीह प्रगीडित ? क्यों समस्त लोकों के ताप, परीक्षणहृदयदहन, उत्साहदहन छल लाञ्छन, निर्धनता का दंशन, फिर उस पर भी मोल-भाव शोषक प्रकाशकों द्वारा ? निर्धन लेखक लिखे, किन्तु क्या खाकर, जब उसकी रोटी समृद्ध खा जाते, और भूख से व्याकुल उसके बच्चे रो रो मरते । वह महान क्षण भर की सभी महत्ता भूल परमकातर हो, कहता, विभु बूढ़े हो चले, इसी से सठा न्याय भी उनका उनकी मसि-मा । क्षण भर पीछे पुनः पराजित मति हो, वही विवश प्रज्ञा मे शीश झुकाता, क्षमा मांगता विभु से कहे-करे की, किन्तु क्या हुआ यदि तुमने जग-नायक, अमितबली हो एक अवल जन कवि को अवसर दिया विरोधवाद का पहले, पीछे अपने सर्वशक्त हाथों मे अक्रिय कर अपने चरणों मे डाला। विभुता केवल यही कि जनसाधारण रोकर झुकता, कवि हमकर झुकता है । यह क्या तुमने किया ? ग्लानि वया जग से इतनी तुम्हें हुई कि रुग्ण होने पर हाय चिकित्सा भी न प्रचुर होने दी? २६६ प्रसाद वाङ्मय