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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/६१

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को कुछ दिन के लिये हटाकर उसी जगह अपना भारी खजाना गाड़ दिया। उसे लोग धननन्द कहने लगे। धननन्द के अन्नक्षेत्र में एक दिन तक्षशिला प्रवासी चाणक्य ब्राह्मण आया और सवसे उच्च आसन पर बैठ गया, जिसे देखकर धननन्द चिढ़ गया और उसे अपमानित करके निकाल दिया। चाणक्य ने धननन्द का नाश करने की प्रतिज्ञा की। कहते हैं कि जब नन्द बहुत विलामी हुआ, तो उमकी क्रूरता और भी बढ़ गयीप्राचीन मन्त्री शकटार को बन्दी करके उसने वररुचि नामक ब्राह्मण को अपना मन्त्री बनाया। मगध-निवासी उपवर्ष के दो शिष्य थे, जिनमें से पाणिनि तक्षशिला में विद्याभ्यास करने गया था, किन्तु वररुचि, जिसकी राक्षस से मैत्री थी, नन्द का मंत्री बना। शकटार जब बन्दी हुआ तब वररुचि ने उसे छुड़ाया, और एक दिन वही दशा मंत्री वररुचि की भी हुई। इनका नाम कात्यायन भी था। बौद्ध लोग इन्हें 'मगधदेशीय ब्रह्मबन्धु' लिखते है और पाणिनि के सूत्रो के यही वार्तिककार कात्यायन है । (कितने लोगों का मत है कि कात्यायन और वररुचि भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे) ___ शकटार ने अपने वैर का समय पाया, और वह विष-प्रयोग द्वारा तथा एक दूसरे को लाकर नन्दों में आन्तरिक द्वेष फैलाकर एक के बाद दूसरे को राजा बनाने लगा । धीरे-धीरे नन्दवंश का नाश हुआ, और केवल अन्तिम नन्द बचा । उसने सावधानी से अपना राज्य संभाला और वररुचि को फिर मन्त्री बनाया । शकटार ने प्रसिद्ध चाणक्य को, जो कि नीति-शास्त्र विशारद होकर गार्हस्थ्व जीवन में प्रवेश के लिये राजधानी मे आया था, नन्द का विरोधी बना दिया। वह क्रुद्ध ब्राह्मण अपनी प्रतिहिंसा पूरी करने के लिए सहायक ढूंढने लगा। पाटलिपुत्र के नगर-प्रान्त मे पिप्पिली-कानन के मौर्य-सेनापति का एक विभवहीन गृह था। महापद्म नन्द के और उनके पुत्रो के अत्याचार से मगध कॉप रहा था। मौर्य सेनापति के बन्दी हो जाने के कारण उसके कुटुम्ब का जीवन किसी प्रकार कष्ट से बीत रहा था। ___एक बालक उसी घर के सामने खेल रहा था। कई लड़के उसकी प्रजा बने थे और वह था उनका राजा। उन्ही लड़को में से वह किसी को घोड़ा और किसी को हाथी बनाकर चढ़ता और दण्ड तथा पुरस्कार आदि देने का राजकीय अभिनय कर रहा था । उसी ओर से चाणक्य जा रहे थे। उन्होने उस बालक की राज-क्रीड़ा बड़े ध्यान से देखी । उसके मन में कुतूहल हुआ और कुछ विनोद भी। उन्होने ठीक-ठीक ब्राह्मण की तरह उस बालक राजा के पास जाकर याचना की-"राजन्, मुझे दूध पीने के लिये गऊ चाहिये ।" वालक ने राजोनित उदारता का अभिनय करते हुए सामने चरती हुई गौओं को दिखलाकर कहा- "इनमें से जितनी इच्छा हो, तुम ले लो।" मौर्यवंश-चन्द्रगुप्त : ६१